संदेश

(निबंध) लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

संस्कृति और सौंदर्य(निबंध), नामवर सिंह

चित्र
निबंध - संस्कृति और सौंदर्य  निबंधकार - नामवर सिंह  नामवर सिंह ने इस निबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के फूल और रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय के बारे में बताया है।  निबंध का आरंभ  'अशोक के फूल' केवल एक फूल की कहानी नहीं, भारतीय संस्‍कृति का एक अध्‍याय है; और इस अध्‍याय का अनंगलेख पढ़नेवाले हिंदी में पहले व्‍यक्ति हैं हजारीप्रसाद द्विवेदी। पहली बार उन्‍हें ही यह अनुभव हुआ कि 'एक-एक फूल, एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्‍मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है। अशोक की भी अपनी स्‍मृति-परंपरा है। आम की भी है, बकुल की भी है, चंपे की भी है। सब क्‍या हमें मालूम है? जितना मालूम है उसी का अर्थ क्‍या स्‍पष्‍ट हो सका है?' अब तो खैर हिंदी में फूलों पर 'ललित' लेख लिखनेवाले कई लेखक निकल आए हैं, लेकिन कहने की आवश्‍यकता नहीं कि 'अशोक के फूल' आज भी अपनी जगह है। का‍लिदास के प्रेमी पंडितों को पहली बार इस रहस्‍योद्घाटन से अवश्‍य ही धक्‍का लगा होगा कि जिस कवि को वे अब तक अपनी आर्य संस्‍कृति का महान गायक समझते आ रहे थे वह गंधर्व, यक्ष, क...

शिवशंभू के चिट्ठे (निबंध), बालमुकुंद गुप्त

चित्र
निबंध - शिवशंभु के चिट्ठे  लेखक - बालमुकुंद गुप्त  प्रकाशन - १९०४ में भारतमित्र में हुआ यह निबंध व्यंग्यात्मक निबंध है। इस निबंध में ८ लार्ड कर्जन को, २ लार्ड मिण्टो,  भारत सचिव मि० मार्ली,  शाहिस्ते खाँ, अलिगढ़ के छात्रों, सर सहमद अहमद लाला यशवंतराय को लिखे है।  माई लार्ड! लड़कपनमें इस बूढ़े भंगड़को बुलबुलका बड़ा चाव था। गांवमें कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे, बालक शिवशम्भु शर्मा बुलबुलें लड़ानेका चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुलको हाथपर बिठाकरही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मणकुमारको बुलबुल कैसे मिले? पिताको यह भय कि बालकको बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथसे बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोधसे यदि पिताने किसी मित्रकी बुलबुल किसी दिन ला भी दी तो वह एक घण्टेसे अधिक नहीं रहने पाती थी। वह भी पिताकी निगरानीमें। सरायके भटियारे बुलबुलें पकड़ा करते थे। गांवके लड़के उनसे दो दो तीन तीन पैसेमें खरीद लाते थे। पर बालक शिवशम्भु तो ऐसा नहीं कर सकता था। पिताकी आज्ञा बिना वह बुलबुल कैसे लावे और...

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

शिवशंभू के चिट्ठे (निबंध), बालमुकुंद गुप्त

ईदगाह (प्रेमचंद)

मेरे राम का मुकुट भीग रहा है

निराशावादी (कविता)

हिंदी रचना पर आधारित फिल्में