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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? (कविता)

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कविता - क्षण भर को क्यों प्यार किया था?  कवि - हरिवंशराय बच्चन कविता का आरंभ  क्षण भर को क्यों प्यार किया था? अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? ‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’ और न कुछ मैं कहने पाया - मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? वह क्षण अमर हुआ जीवन में, आज राग जो उठता मन में - यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? धन्यवाद 🙏

सच न बोलना (कविता)

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कविता - सच न बोलना  कवि - नागार्जुन कविता का आरंभ  मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को, डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को! जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा! सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा! जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है! बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।  ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का, फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका! बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे! भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे! ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है, अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है! सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर! छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे, देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे! जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा, काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा! माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं! ...

प्रेम नई मनः स्थिति (कविता)

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कविता - प्रेम नई मनः स्थिति कवि -  रघुवीर सहाय कविता का आरंभ  दुखी दुखी हम दोनों आओ बैठें  अलग अलग देखें , आँखों में नहीं हाथ में हाथ न लें हम लिए हाथ में हाथ न बैठे रह जाएँ बहुत दिनों बाद आज इतवार मिला है ठहरी हुई दुपहरी ने यह इत्मीनान दिलाया है।  हम दुख में भी कुछ देर साथ रह सकते हैं। झुँझलाए बिना , बिना ऊबे अपने अपने में , एक दूसरे में, या  दुख में नहीं, सोच में नहीं  सोचने में डूबे। क्या करें? क्या हमें करना है? क्या यही हमे करना होगा क्या हम दोनो आपस ही में निबटा लेंगे  झगड़ा जो हममे और हमारे सुख में है।  धन्यवाद 🙏

सखि वे मुझसे कह कर जाते (कविता)

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कविता - सखि वे मुझसे कह कर जाते  कवि - मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते? मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना? मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते। स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में - क्षात्र-धर्म के नाते  सखि, वे मुझसे कहकर जाते। हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा, किसपर विफल गर्व अब जागा? जिसने अपनाया था, त्यागा; रहे स्मरण ही आते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते, पर इनसे जो आँसू बहते, सदय हृदय वे कैसे सहते ? गये तरस ही खाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। जायें, सिद्धि पावें वे सुख से, दुखी न हों इस जन के दुख से, उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ? आज अधिक वे भाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। गये, लौट भी वे आवेंगे, कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे, रोते प्राण उन्हें पावेंगे, पर क्या गाते-गाते ? सखि, वे मुझसे कहकर जाते। धन्यवाद 🙏

सब जीवन बीता जाता है (कविता)

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कविता - सब जीवन बीता जाता है  कवि - जयशंकर शंकर प्रसाद  कविता का आरंभ  सब जीवन बीता जाता है धूप छाँह के खेल सदॄश सब जीवन बीता जाता है समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुषार-कण में, हमें लगा कर भविष्य-रण में, आप कहाँ छिप जाता है सब जीवन बीता जाता है बुल्ले, नहर, हवा के झोंके, मेघ और बिजली के टोंके, किसका साहस है कुछ रोके, जीवन का वह नाता है सब जीवन बीता जाता है वंशी को बस बज जाने दो, मीठी मीड़ों को आने दो, आँख बंद करके गाने दो जो कुछ हमको आता है सब जीवन बीता जाता  धन्यवाद 🙏

निराशावादी (कविता)

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कविता- निराशावादी  कवि- रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास । क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ? तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है? बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो । धन्यवाद   🙏

विचार आते है (कविता)

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कविता - विचार आते हैं  कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध कविता का आरंभ  विचार आते हैं लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक़्त पीठ पर सिर पर उठाते समय भार परिश्रम करते समय चांद उगता है व पानी में झलमलाने लगता है हृदय के पानी में विचार आते हैं लिखते समय नहीं पत्थर ढोते वक़्त पीठ पर उठाते वक़्त बोझ साँप मारते समय पिछवाड़े बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त पत्थर पहाड़ बन जाते हैं नक्शे बनते हैं भौगोलिक पीठ कच्छप बन जाती है समय पृथ्वी बन जाता है धन्यवाद 🙏

दोनों ओर प्रेम पलता है(कविता)

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कविता - दोनों ओर प्रेम पलता है  कवि - मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  दोनों ओर प्रेम पलता है। सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है! सीस हिलाकर दीपक कहता-- ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’ पर पतंग पड़ कर ही रहता  कितनी विह्वलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है। बचकर हाय! पतंग मरे क्या? प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या? जले नही तो मरा करे क्या? क्या यह असफलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है। कहता है पतंग मन मारे-- ’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे, क्या न मरण भी हाथ हमारे? शरण किसे छलता है?’ दोनों ओर प्रेम पलता है। दीपक के जलने में आली, फिर भी है जीवन की लाली। किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली, किसका वश चलता है? दोनों ओर प्रेम पलता है। जगती वणिग्वृत्ति है रखती, उसे चाहती जिससे चखती; काम नहीं, परिणाम निरखती। मुझको ही खलता है। दोनों ओर प्रेम पलता है। धन्यवाद 🙏

कदम मिलाकर चलना होगा (कविता)

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कविता - कदम मिलाकर चलना होगा कवि - अटल बिहारी बाजपेई कविता हुई का आरंभ  बाधाएं आती हैं आएं घिरें प्रलय की घोर घटाएं, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं, निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा. कदम मिलाकर चलना होगा हास्य-रूदन में, तूफानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा कदम मिलाकर चला होगा उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा कदम मिलाकर चलना होगा सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते, पावस बनकर ढलना होगा कदम मिलाकर चलना होगा कुछ कांटों से सज्जित जीवन, प्रखर प्यार से वंचित यौवन, नीरवता से मुखरित मधुबन, परहित अर्पित अपना तन-मन, जीवन को शत-शत आहुति में, जलना होगा, गलना होगा क़दम मिलाकर चलना होगा धन्यवाद 🙏

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी (कविता)

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कविता- जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी  कवयित्री - सुभद्राकुमारी चौहान कविता का आरंभ  सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,  गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।  चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥  कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,  लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,  नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,  बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,  देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,  नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,  सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। ...

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये (कविता)

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कविता- कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये  कवि-  दुष्यंत कुमार कविता का आरंभ  कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये धन्यवाद 🙏

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है (कविता)

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कविता - सिंहासन खाली करो कि जनता आती है  कवि-  रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,  मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;  दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।   जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,  जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,  जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे  तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।  जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,  "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"  "सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"  'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"  मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,  जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;  अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के  जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।  लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,  जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;  दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।  हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,...

चाँदनी चुपचाप सारी रात (कविता)

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कविता - चाँदनी चुपचाप सारी रात कवि - अज्ञेय कविता का आरंभ  चाँदनी चुपचाप सारी रात- सूने आँगन में जाल रचती रही । मेरी रूपहीन अभिलाषा अधूरेपन की मद्धिम- आँच पर तचती रही । व्यथा मेरी अनकही आनन्द की सम्भावना के मनश्चित्रों से परचती रही । मैं दम साधे रहा मन में अलक्षित आँधी मचती रही । प्रात बस इतना कि मेरी बात सारी रात उघड़ कर वासना का रूप लेने से बचती रही । धन्यवाद 🙏

तोड़ती पत्थर (कविता)

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कविता - तोड़ती पत्थर  कवि - निराला कविता का आरंभ  वह तोड़ती पत्थर; देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर- वह तोड़ती पत्थर। कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार; श्याम तन, भर बंधा यौवन, नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन, गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार:- सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार। चढ़ रही थी धूप; गर्मियों के दिन,  दिवा का तमतमाता रूप; उठी झुलसाती हुई लू रुई ज्यों जलती हुई भू, गर्द चिनगीं छा गई, प्रायः हुई दुपहर :- वह तोड़ती पत्थर। देखते देखा मुझे तो एक बार उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार; देखकर कोई नहीं, देखा मुझे उस दृष्टि से जो मार खा रोई नहीं, सजा सहज सितार, सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार। एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर, ढुलक माथे से गिरे सीकर, लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा- "मैं तोड़ती पत्थर।" धन्यवाद  🙏

आज मैं अकेला हूँ(कविता)

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कविता-आज मैं अकेला हूँ  कवि त्रिलोचन  कविता का आरंभ  आज मैं अकेला हूँ अकेले रहा नहीं जाता। जीवन मिला है यह रतन मिला है यह धूल में कि फूल में मिला है तो मिला है यह मोल-तोल इसका अकेले कहा नहीं जाता सुख आये दुख आये दिन आये रात आये फूल में कि धूल में आये जैसे जब आये सुख दुख एक भी अकेले सहा नहीं जाता चरण हैं चलता हूँ चलता हूँ चलता हूँ फूल में कि धूल में चलता मन चलता हूँ ओखी धार दिन की अकेले बहा नहीं जाता। धन्यवाद  🙏

सतपुड़ा के जंगल (कविता)

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कविता- सतपुड़ा के जंगल कवि- भवानीप्रसाद मिश्र प्रकाशन व संकलन - गीत-फरोश १९५६ व दूसरा तार सप्तक में।  कविता का आरंभ  सतपुड़ा के घने जंगल  नींद में डूबे हुए-से,  ऊँघते अनमने जंगल।  झाड़ ऊँचे और नीचे  चुप खड़े हैं आँख भींचे; घास चुप है, काश चुप है  मूक शाल, पलाश चुप है;  बन सके तो धँसो इनमें,  धँस न पाती हवा जिनमें,  सतपुड़ा के घने जंगल  नींद में डूबे हुए-से  ऊँघते अनमने जंगल।  सड़े पत्ते, गले पत्ते,  हरे पत्ते, जले पत्ते,  वन्य पथ को ढँक रहे-से  पंक दल में पले पत्ते,  चलो इन पर चल सको तो,  दलो इनको दल सको तो,  ये घिनौने-घने जंगल,  नींद में डूबे हुए-से  ऊँघते अनमने जंगल।  अटपटी उलझी लताएँ,  डालियों को खींच खाएँ,  पैरों को पकड़ें अचानक,  प्राण को कस लें कपाएँ,  साँप-सी काली लताएँ  बला की पाली लताएँ,  लताओं के बने जंगल,  नींद में डूबे हुए-से  ऊँघते अनमने जंगल।  मकड़ियों के जाल मुँह पर, और सिर के बाल मुँह पर,  मच्छरों के द...

शासन की बंदूक (कविता)

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कविता - शासन की बंदूक    कवि- नागार्जुन रचनाकाल-१९६६ प्रकाशन व संकलन- युगधारा १९५३ में हुआ था  कविता का आरंभ  खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक  नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक  उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक  जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक  बढ़ी बधिरता दगुनी, बने विनोबा मूक धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक  सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक  जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक  जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक  बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक निष्कर्ष - कविता में जनता की शाक्ति का दर्शन कराया गया है । शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया गया है।  कविता के माध्यम से शासन को चुनौती दी है।  सत्य और अहिंसा अब नहीं रही है।  हिटलर और निरंकुशतावादी शासन दिखाया गया है।  जलशक्ति को जागृत करने का प्रयास किया है कवि ने।  शासन की बंदूक का विराट स्वरूप।  धन्यवाद 🙏

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र(कविता)

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कविता - द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! कवि - सुमित्रानंदन पत्र रचनाकाल - फरवरी 1934 है प्रकाशन - युगांत (1935) और  पल्लवनि (1940) काव्य संग्रह में हुआ है कविता   द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!  हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!  हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,  तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!  निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग! जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन, च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम झर-झर अनन्त में हो विलीन! कंकाल-जाल जग में फैले  फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली!  प्राणों की मर्मर से मुखरित  जीव की मांसल हरियाली!  मंजरित विश्व में यौवन के जग कर जग का पिक, मतवाली निज अमर प्रणय-स्वर मदिरा से भर दे फिर नव-युग की प्याली! निष्कर्ष -  यह प्रगतिवादी कविता है , नवयुग निर्माण की भावना है कविता में , पुरानी मान्यताओं और विचारों को नष्ट करने  बात कही है कविता में, पुरानी  मान्यताएँ  जड़वत और निर्जीव हो गई है,  परिवर्तन ही कवि का उद्देश्य है,  नय युग के साथ चलने की बात कही कवि ने इस कविता में । धन्यवाद 🙏

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