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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

गद्यकाव्य

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गद्यकाव्य 'गद्यकाव्य' गद्य की ऐसी विधा है, जिसमें कविता जैसी रसमयता,  रमणीयता, चित्रात्मकता और संवेदनशीलता होती है । हिंदी में रायकृष्णदास गद्यकाव्य के जनक माने जाते हैं।इन्होंने अनेक आध्यात्मिक गद्यकाव्यों की रचना की। गद्यकाव्य की सर्वप्रथम रचना रामाकृष्णदास की 'साधना' (1916 ई) है।  साधना, संलाप, प्रवाल, छायावाद आदि रामाकृष्ण दास के मुख्य गद्यकाव्य संग्रह है। गद्यकाव्य, रचना की प्रणाम रवींद्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि' के हिंदी अनुवाद से प्राप्त हुई। गद्यकाव्य का क्रमबद्ध लेखन छायावाद युग से आरंभ होता है और छायावाद युग में ही पूर्ण विकास लक्षित होता है। कुछ आलोचकों ने भारतेंदु को ही इस विधा का जनक माना है। प्रेमघन जगमोहन सिंह आदि भारतेंदु के सहयोगियों की रचनाओं में गद्यकाव्य की झलक मिलती है। बृजनंदन सहाय के 'सौन्दर्योपासक' को हिंदी का प्रथम गद्य काव्य माना जाता है। राजा राधिकारमण प्रसाद ने 'प्रेमलहरी' तथा लक्ष्मी-नारायण सिंह 'सुधांशु' ने 'वियोग' नामक गद्यकाव्य की रचना की।  वियोगीहरि के गद्यकाव्यों में 'भक्तितत्व' ...

हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

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  हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर  1 काव्य के तत्व माने गए है -  दो 2 महाकाव्य के उदाहरण है -  रामचरित मानस, रामायण, साकेत, महाभारत, पदमावत, कामायनी, उर्वशी, लोकायतन, एकलव्य आदि 3 मुक्तक काव्य के उदाहरण है-  मीरा के पद, रमैनियां, सप्तशति 4 काव्य कहते है -  दोष रहित, सगुण एवं रमणियार्थ प्रतिपादक युगल रचना को 5 काव्य के तत्व है -  भाषा तत्व, बुध्दि या विचार तत्व, कल्पना तत्व और शैली तत्व 6 काव्य के भेद है -  प्रबंध (महाकाव्य और खण्ड काव्य), मुक्तक काव्य 7 वामन ने काव्य प्रयोजन माना - दृष्ट प्रयोजन (प्रीति आनंद की प्राप्ति) अदृष्ट प्राप्ति (कीर्ति प्राप्ति) 8 भामह की काव्य परिभाषा है -  शब्दार्थो सहित काव्यम 9 प्रबंध काव्य का शाब्दिक अर्थ है -  प्रकृष्ठ या विशिष्ट रूप से बंधा हुआ। 10 रसात्मक वाक्यम काव्यम परिभाषा है -  पंडित जगन्नाथ का 11 काव्य के कला पक्ष में निहित होती है -  भाषा 12 काव्य में आत्मा की तरह माना गया है-  रस 13 तद्दोषों शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुन: क्वापि, परिभाषा है - मम्मट की 14 काव्य के...

पाश्चात्य साहित्य शास्त्र के सिद्धांत

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पाश्चात्य साहित्य शास्त्र के सिद्धांत  अनुकरण सिद्धांत                              प्लेटो  विरेचन सिद्धांत / त्रासदी                   अरस्तु  अभिव्यंजनावाद / उदात्तवाद              लोंजाइनस  संप्रेषणवाद / मूल्यवाद                      आई ए रिचर्ड्स  अर्थ मीमांसा सिद्धांत                        आई ए  रिचर्ड्स  अस्तित्ववाद                                     सारेन कीर्केगार्द  अभिव्यंजनावाद                                बेनेदेतो क्रोचे  स्वच्छंदतावाद          ...

सखि वे मुझसे कह कर जाते (कविता)

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कविता - सखि वे मुझसे कह कर जाते  कवि - मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते? मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना? मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते। स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में - क्षात्र-धर्म के नाते  सखि, वे मुझसे कहकर जाते। हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा, किसपर विफल गर्व अब जागा? जिसने अपनाया था, त्यागा; रहे स्मरण ही आते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते, पर इनसे जो आँसू बहते, सदय हृदय वे कैसे सहते ? गये तरस ही खाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। जायें, सिद्धि पावें वे सुख से, दुखी न हों इस जन के दुख से, उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ? आज अधिक वे भाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। गये, लौट भी वे आवेंगे, कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे, रोते प्राण उन्हें पावेंगे, पर क्या गाते-गाते ? सखि, वे मुझसे कहकर जाते। धन्यवाद 🙏

महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

आज हम हिंदी की परीक्षा में बार-बार पूछे जाने वाले महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर करेंगे  हिंदी व्याकरण 100 महत्वपूर्ण प्रश्न हिंदी मानक वर्णमाला में कुल कितने वर्ण हैं? – 52 अंतस्थ व्यंजन की संख्या कितनी है? – 4 स्वरों की संख्या कितनी मानी गई है? – 11 हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति कहां से हुई? – सिंधु से हिंदी वर्णमाला को कितने भागों में विभक्त किया गया है? – दो भागों में हिंदी वर्णमाला में स्पर्श व्यंजनों की संख्या कितनी है? – 25 मात्रा के आधार पर हिंदी स्वरों के दो भेद कौन-कौन से हैं? – हस्वर एवं दीर्घ हिंदी वर्णमाला में व्यंजनों की संख्या कितनी है? – 33 पंचतंत्र क्या है? – कहानी संग्रह इंदिरापति किसे कहा जाता है? – विष्णु को कबीरदास की भाषा कौन सी थी? – सधुक्कडी  प्रगतिवाद उपयोगितावाद का दूसरा नाम है यह किसका कथन है? – रामविलास शर्मा रामचरितमानस में कुल कितने कांड हैं? – सात हिंदी साहित्य के इतिहास के रचयिता है? – आचार्य रामचंद्र शुक्ल कलम का जादूगर किसे कहा जाता है? – रामवृक्ष बेनीपुरी गीत गोविंद किस भाषा में लिखा गया है? – संस्कृत भाषा में किसे लोकनायक कहा जाता है? – तुलसीदास जी को व...

राह तो एक थी (कविता)

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कविता - राह तो एक थी कवि-  शमशेर बहादुर सिंह कविता का आरंभ  राह तो एक थी हम दोनों की आप किधर से आए गए हम जो लुट गए पिट गए, आप तो राजभवन में पाए गए किस लीला युग में आ पहुँचे अपनी सदी के अंत में हम  नेता, जैसे घास फूस के रावण खड़े कराए गए जितना ही लाउडस्पीकर चीख़ा उतना ही ईश्वर दूर हुआ  उतने ही दंगे फैले जितने 'दीन धरम' फैलाए गए दादा की गोद में पोता बैठा 'महबूबा! महबूबा गाए दादी बैठी मूड़ हिलाए हम किस जुग में आए गए गीत ग़ज़ल है फ़िल्मी लय में शुद्ध गलेबाज़ी शमशेर  आज कहां वो गीत जो कल थे गलियों गलियों गाए गए धन्यवाद 

हिंदी साहित्य में प्रमुख दर्शन

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प्रमुख दर्शन अद्वैतवाद ------------------------- शंकराचार्य  विशिष्टाद्वैतवाद --------------------- रामानुजाचार्य  द्वैतवाद –------------------------------- माधवाचार्य  द्वैताद्वैतवाद --------------------------- निंबार्क  शुद्धाद्वैतवाद ------------------------- बल्लभाचार्य  मीमांसा दर्शन -------------------------- जैमिनी सांख्य दर्शन --------------------------- कपिलमुनि  योगदर्शन ------------------------------- पतंजलि  न्यायदर्शन –---------------------------- गौतम वैशेषिक दर्शन -------------------------- कणाद  चर्वाक (लोकायत) दर्शन ------------ म्वार्हस्पत्य जैन दर्शन (स्यादवाद) -------------- पार्श्वनाथ  संघातवाद (क्षणिकवाद) –----------- गौतमबुद्ध  धन्यवाद 

मैं उनका ही होता (कविता)

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कविता - मैं उनका ही होता कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध कविता का आरंभ  मैं उनका ही होता जिनसे मैंने रूप भाव पाए हैं। वे मेरे ही हिये बंधे हैं जो मर्यादाएँ लाए हैं। मेरे शब्द, भाव उनके हैं मेरे पैर और पथ मेरा, मेरा अंत और अथ मेरा, ऐसे किंतु चाव उनके हैं। मैं ऊँचा होता चलता हूँ उनके ओछेपन से गिर-गिर, उनके छिछलेपन से खुद-खुद, मैं गहरा होता चलता हूँ। धन्यवाद 🙏

सब जीवन बीता जाता है (कविता)

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कविता - सब जीवन बीता जाता है  कवि - जयशंकर शंकर प्रसाद  कविता का आरंभ  सब जीवन बीता जाता है धूप छाँह के खेल सदॄश सब जीवन बीता जाता है समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुषार-कण में, हमें लगा कर भविष्य-रण में, आप कहाँ छिप जाता है सब जीवन बीता जाता है बुल्ले, नहर, हवा के झोंके, मेघ और बिजली के टोंके, किसका साहस है कुछ रोके, जीवन का वह नाता है सब जीवन बीता जाता है वंशी को बस बज जाने दो, मीठी मीड़ों को आने दो, आँख बंद करके गाने दो जो कुछ हमको आता है सब जीवन बीता जाता  धन्यवाद 🙏

खुला आसमान (गीत)

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गीत - खुला आसमान  गीतकार - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" गीत का आरंभ  बहुत दिनों बाद खुला आसमान निकली है धूप, खुश हुआ जहान दिखी दिशाएँ, झलके पेड़, चरने को चले ढोर--गाय-भैंस-भेड़, खेलने लगे लड़के छेड़-छेड़ लड़कियाँ घरों को कर भासमान। लोग गाँव-गाँव को चले, कोई बाजार, कोई बरगद के पेड़ के तले जाँघिया-लँगोटा ले, सँभले, तगड़े-तगड़े सीधे नौजवान। पनघट में बड़ी भीड़ हो रही, नहीं ख्याल आज कि भीगेगी चूनरी, बातें करती हैं वे सब खड़ी, चलते हैं नयनों के सधे बाण। धन्यवाद  🙏

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है (कविता)

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कविता - सिंहासन खाली करो कि जनता आती है  कवि-  रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,  मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;  दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।   जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,  जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,  जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे  तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।  जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,  "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"  "सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"  'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"  मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,  जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;  अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के  जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।  लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,  जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;  दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।  हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,...

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