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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

पिता कहानी, ज्ञानरंजन

कहानी-पिता लेखक- ज्ञानरंजन  पात्र- पिता , बेटा, बेटे की पत्नी (देवा), कप्तान भाई विषय- मानवीय जीवन व्यवस्था का चित्रण, गर्मी के दिनों की पीड़ा, पिता पुत्र के रिश्ते की दूरी, घर का कर्ता पुरूष, पिता के जीवन का सार  'पिता' ज्ञानरंजन का पाँचवा कहानी है  उसने अपने बिस्तरे का अंदाज लेने के लिए मात्र आध पल को बिजली जलाई। बिस्तरे फर्श पर बिछे हुए थे। उसकी स्त्री ने सोते-सोते ही बड़बड़ाया, 'आ गए' और बच्चे की तरफ करवट लेकर चुप हो गई। लेट जाने पर उसे एक बड़ी डकार आती मालूम पड़ी, लेकिन उसने डकार ली नहीं। उसे लगा कि ऐसा करने से उस चुप्पी में खलल पड़ जाएगा, जो चारों तरफ भरी है, और काफी रात गए ऐसा होना उचित नहीं है। अभी घनश्यामनगर के मकानों के लंबे सिलसिलों के किनारे-किनारे सवारी गाड़ी धड़धड़ाती हुई गुजरी। थोड़ी देर तक एक बहुत साफ भागता हुआ शोर होता रहा। सर्दियों में जब यह गाड़ी गुजरती है तब लोग एक प्रहर की खासी नींद ले चुके होते हैं। गर्मियों में साढ़े ग्यारह का कोई विशेष मतलब नहीं होता। यों उसके घर में सभी जल्दी सोया करते, जल्दी खाया और जल्दी उठा करते हैं। आज बेहद गर्मी है। रास्ते-भर उसे जितन...

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