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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

भेंटवार्ता (साक्षात्कार)

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भेंटवार्ता (साक्षात्कार)  भेंटवार्ता (साक्षात्कार) विधा का आरंभ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ।  हिंदी में इस विधा का सूत्रपात बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा हुआ।  बनारसीदास चतुर्वेदी का 'विशाल भारत' (सितम्बर 1931 ई)  में 'रत्नाकरजी से बातचीत ' शीर्षक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ।  बनारसीदास चतुर्वेदी का दूसरा साक्षात्कार 'विशाल भारत' (जनवरी 1932 ई)  में 'प्रेमचंदजी के साथ दो दिन' नाम से प्रकाशित हुआ।  इसके उपरांत नवम्बर 1933 ई में पंडित श्रीराम का 'कबूतर' नामक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ।   सन् 1947 में सतेंद्र ने साधना के माध्यम से निश्चित प्रश्नावली के माध्यम से गणमान्य साहित्यकारों के हस्ताक्षर प्रकाशित किए। भेंटवार्ता विधा पर पुस्तककार प्रकाशित सबसे महत्वपूर्ण कृति डॉ पदम सिंह शर्मा की 'मैं इन से मिला' दो भागों में 1952 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी। साक्षात्कार विधा की सर्वमान्य स्वतंत्र रचना बेनीमाधव शर्मा कृत  'कविदर्शन' मानी गई है। 'संवाद चलता रहे'- पत्रकार कृपाशंकर चौबे द्वारा दिए गए 12 कवियों, 5 निबंधकारों, 12 कथा...

निराशावादी (कविता)

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कविता- निराशावादी  कवि- रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास । क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ? तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है? बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो । धन्यवाद   🙏

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