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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

शाक्ति या सौंदर्य (कविता)

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कविता -.शक्ति या सौंदर्य  कवि - रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  तुम रजनी के चाँद बनोगे ? या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ? एक बात है मुझे पूछनी, फूल बनोगे या पत्थर ? तेल, फुलेल, क्रीम, कंघी से नकली रूप सजाओगे ? या असली सौन्दर्य लहू का आनन पर चमकाओगे ? पुष्ट देह, बलवान भूजाएँ, रूखा चेहरा, लाल मगर, यह लोगे ? या लोग पिचके गाल, सँवारि माँग सुघर ? जीवन का वन नहीं सजा जाता कागज के फूलों से, अच्छा है, दो पाट इसे जीवित बलवान बबूलों से। चाहे जितना घाट सजाओ, लेकिन, पानी मरा हुआ, कभी नहीं होगा निर्झर-सा स्वस्थ और गति-भरा हुआ। संचित करो लहू; लोहू है जलता सूर्य जवानी का, धमनी में इससे बजता है निर्भय तूर्य जावनी का। कौन बड़ाई उस नद की जिसमें न उठी उत्ताल लहर ? आँधी क्या, उनचास हवाएँ उठी नहीं जो साथ हहर ? सिन्धु नहीं, सर करो उसे चंचल जो नहीं तरंगों से, मुर्दा कहो उसे, जिसका दिल व्याकुल नहीं उमंगों से। फूलों की सुन्दरता का तुमने है बहुत बखान सुना, तितली के पीछे दौड़े, भौरों का भी है गान सुना। अब खोजो सौन्दर्य गगन– चुम्बी निर्वाक् पहाड़ों में, कूद पड़ीं जो अभय, शिखर से उन प्रपात की...

नींद आती ही नहीं

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नींद आती ही नहीं...(हज़ल)  भारतेंदु हरिश्वंद्र आरंभ  हज़ल (हास्य ग़ज़ल) नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से तंग आया हूँ मैं इस पुरसोज़ दिल के साज से दिल पिसा जाता है उनकी चाल के अन्दाज़ से हाथ में दामन लिए आते हैं वह किस नाज़ से सैकड़ों मुरदे जिलाए ओ मसीहा नाज़ से मौत शरमिन्दा हुई क्या क्या तेरे ऐजाज़ से बाग़वां कुंजे कफ़स में मुद्दतों से हूँ असीर अब खुलें पर भी तो मैं वाक़िफ नहीं परवाज़ से कब्र में राहत से सोए थे न था महशर का खौफ़ वाज़ आए ए मसीहा हम तेरे ऐजाज़ से बाए गफ़लत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो चौंक पड़ता हूँ शिकस्तः होश की आवाज़ से नाज़े माशूकाना से खाली नहीं है कोई बात मेरे लाश को उठाए हैं वे किस अन्दाज़ से कब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका ‘रसा’ चौंकने वाले हैं कब हम सूर की आवाज़ से धन्यवाद 🙏

तुम हमारे हो (कविता)

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कविता - तुम हमारे हो  कवि - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" कविता का आरंभ  नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हु‌ए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते। ताब बेताब हु‌ई हठ भी हटी नाम अभिमान का भी छोड़ दिया। देखा तो थी माया की डोर कटी सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया। पर अहो पास छोड़ आते ही वह सब भूत फिर सवार हु‌ए। मुझे गफलत में ज़रा पाते ही फिर वही पहले के से वार हु‌ए। एक भी हाथ सँभाला न गया और कमज़ोरों का बस क्या है। कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया, मुझे दुख देने में जस क्या है। रात को सोते यह सपना देखा कि वह कहते हैं "तुम हमारे हो भला अब तो मुझे अपना देखा, कौन कहता है कि तुम हारे हो। अब अगर को‌ई भी सताये तुम्हें तो मेरी याद वहीं कर लेना नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें प्रेम के भाव तुरत भर लेना"। धन्यवाद 🙏

आदर्श प्रेम (कविता)

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कविता - आदर्श प्रेम  कवि - हरिवंशराय बच्चन कविता का आरंभ  प्यार किसी को करना लेकिन कह कर उसे बताना क्या अपने को अर्पण करना पर और को अपनाना क्या गुण का ग्राहक बनना लेकिन गा कर उसे सुनाना क्या मन के कल्पित भावों से औरों को भ्रम में लाना क्या ले लेना सुगंध सुमनों की तोड़ उन्हें मुरझाना क्या प्रेम हार पहनाना लेकिन प्रेम पाश फैलाना क्या त्याग अंक में पले प्रेम शिशु उनमें स्वार्थ बताना क्या दे कर हृदय हृदय पाने की आशा व्यर्थ लगाना क्या धन्यवाद 🙏

बहुत दिनों से (कविता)

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कविता - बहुत दिनों से  कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध कविता का आरंभ  मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत सी बातें तुमसे कहना चाह रहा था और कि साथ यों साथ-साथ फिर बहना बहना बहना मेघों की आवाज़ों से कुहरे की भाषाओं से रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना है बोल रहा धरती से जी खोल रहा धरती से त्यों चाह रहा कहना उपमा संकेतों से रूपक से, मौन प्रतीकों से मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना! जैसे मैदानों को आसमान, कुहरे की मेघों की भाषा त्याग बिचारा आसमान कुछ रूप बदलकर रंग बदलकर कहे। धन्यवाद 🙏

सच न बोलना (कविता)

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कविता - सच न बोलना  कवि - नागार्जुन कविता का आरंभ  मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को, डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को! जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा! सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा! जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है! बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।  ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का, फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका! बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे! भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे! ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है, अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है! सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर! छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे, देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे! जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा, काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा! माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं! ...

प्रेम नई मनः स्थिति (कविता)

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कविता - प्रेम नई मनः स्थिति कवि -  रघुवीर सहाय कविता का आरंभ  दुखी दुखी हम दोनों आओ बैठें  अलग अलग देखें , आँखों में नहीं हाथ में हाथ न लें हम लिए हाथ में हाथ न बैठे रह जाएँ बहुत दिनों बाद आज इतवार मिला है ठहरी हुई दुपहरी ने यह इत्मीनान दिलाया है।  हम दुख में भी कुछ देर साथ रह सकते हैं। झुँझलाए बिना , बिना ऊबे अपने अपने में , एक दूसरे में, या  दुख में नहीं, सोच में नहीं  सोचने में डूबे। क्या करें? क्या हमें करना है? क्या यही हमे करना होगा क्या हम दोनो आपस ही में निबटा लेंगे  झगड़ा जो हममे और हमारे सुख में है।  धन्यवाद 🙏

सखि वे मुझसे कह कर जाते (कविता)

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कविता - सखि वे मुझसे कह कर जाते  कवि - मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते? मुझको बहुत उन्होंने माना फिर भी क्या पूरा पहचाना? मैंने मुख्य उसी को जाना जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते। स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में - क्षात्र-धर्म के नाते  सखि, वे मुझसे कहकर जाते। हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा, किसपर विफल गर्व अब जागा? जिसने अपनाया था, त्यागा; रहे स्मरण ही आते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते, पर इनसे जो आँसू बहते, सदय हृदय वे कैसे सहते ? गये तरस ही खाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। जायें, सिद्धि पावें वे सुख से, दुखी न हों इस जन के दुख से, उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ? आज अधिक वे भाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते। गये, लौट भी वे आवेंगे, कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे, रोते प्राण उन्हें पावेंगे, पर क्या गाते-गाते ? सखि, वे मुझसे कहकर जाते। धन्यवाद 🙏

चेतना (कविता)

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कविता - चेतना  कवि - मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  अरे भारत! उठ, आँखें खोल, उड़कर यंत्रों से, खगोल में घूम रहा भूगोल! अवसर तेरे लिए खड़ा है, फिर भी तू चुपचाप पड़ा है। तेरा कर्मक्षेत्र बड़ा है, पल पल है अनमोल। अरे भारत! उठ, आँखें खोल बहुत हुआ अब क्या होना है, रहा सहा भी क्या खोना है? तेरी मिट्टी में सोना है, तू अपने को तोल। अरे भारत! उठ, आँखें खोल दिखला कर भी अपनी माया, अब तक जो न जगत ने पाया; देकर वही भाव मन भाया, जीवन की जय बोल। अरे भारत! उठ, आँखें खोल तेरी ऐसी वसुन्धरा है- जिस पर स्वयं स्वर्ग उतरा है। अब भी भावुक भाव भरा है, उठे कर्म-कल्लोल। अरे भारत! उठ, आँखें खोल धन्यवाद 🙏

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ (कविता)

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कविता - ऐसे मैं मन बहलाता हूँ  कवि - हरिवंशराय बच्चन कविता का आरंभ  सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुख झेले, दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! नहीं खोजने जाता मरहम, होकर अपने प्रति अति निर्मम, उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! आह निकल मुख से जाती है, मानव की ही तो छाती है, लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! धन्यवाद 🙏

राह तो एक थी (कविता)

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कविता - राह तो एक थी कवि-  शमशेर बहादुर सिंह कविता का आरंभ  राह तो एक थी हम दोनों की आप किधर से आए गए हम जो लुट गए पिट गए, आप तो राजभवन में पाए गए किस लीला युग में आ पहुँचे अपनी सदी के अंत में हम  नेता, जैसे घास फूस के रावण खड़े कराए गए जितना ही लाउडस्पीकर चीख़ा उतना ही ईश्वर दूर हुआ  उतने ही दंगे फैले जितने 'दीन धरम' फैलाए गए दादा की गोद में पोता बैठा 'महबूबा! महबूबा गाए दादी बैठी मूड़ हिलाए हम किस जुग में आए गए गीत ग़ज़ल है फ़िल्मी लय में शुद्ध गलेबाज़ी शमशेर  आज कहां वो गीत जो कल थे गलियों गलियों गाए गए धन्यवाद 

मुझे कदम-कदम पर (कविता)

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कविता - मुझे कदम-कदम पर  कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध कविता का आरंभ  मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं बांहें फैलाए! एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ, बहुत अच्छे लगते हैं उनके तजुर्बे और अपने सपने सब सच्चे लगते हैं, अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है, मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ, जाने क्या मिल जाए! मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है, हर एक छाती में आत्मा अधीरा है प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है, मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में महाकाव्य पीडा है, पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ, इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ, अजीब है जिंदगी! बेवकूफ बनने की खातिर ही सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ, और यह देख-देख बडा मजा आता है कि मैं ठगा जाता हूँ हृदय में मेरे ही, प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है, कि जगत स्वायत्त हुआ जाता है। कहानियां लेकर और मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते जहां जरा खडे होकर बातें कुछ करता हूँ उपन्यास मिल जाते । धन्यवाद 🙏

सब जीवन बीता जाता है (कविता)

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कविता - सब जीवन बीता जाता है  कवि - जयशंकर शंकर प्रसाद  कविता का आरंभ  सब जीवन बीता जाता है धूप छाँह के खेल सदॄश सब जीवन बीता जाता है समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुषार-कण में, हमें लगा कर भविष्य-रण में, आप कहाँ छिप जाता है सब जीवन बीता जाता है बुल्ले, नहर, हवा के झोंके, मेघ और बिजली के टोंके, किसका साहस है कुछ रोके, जीवन का वह नाता है सब जीवन बीता जाता है वंशी को बस बज जाने दो, मीठी मीड़ों को आने दो, आँख बंद करके गाने दो जो कुछ हमको आता है सब जीवन बीता जाता  धन्यवाद 🙏

यह वादा है मेरा (कविता)

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कविता - यह वादा रहा है मेरा  कवयित्री - हिंदी साहित्य और लेखन कला (रोशमीन अंसारी)  कविता का आरंभ  एहसास समेट कर  रखूंगी राज़ बनाकर दिल में रखूंगी जो भी वक़्त साथ बिताया है उसे मुस्कान बनाकर रखूंगी आँखों में सज़ा कर रखूंगी  सिर पर बैठाकर रखूंगी  रिश्ता तो बेनाम है हमारा पर अलग रिश्ता बनाकर रखूंगी अपनी दुआ में याद रखूंगी  साथ बीते पल ताज़ा रखूंगी  जहाँ कहीं ज़रूरत पड़ेगी वहाँ अपना सबकुछ रखूंगी धन्यवाद 🙏

दोनों ओर प्रेम पलता है(कविता)

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कविता - दोनों ओर प्रेम पलता है  कवि - मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  दोनों ओर प्रेम पलता है। सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है! सीस हिलाकर दीपक कहता-- ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’ पर पतंग पड़ कर ही रहता  कितनी विह्वलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है। बचकर हाय! पतंग मरे क्या? प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या? जले नही तो मरा करे क्या? क्या यह असफलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है। कहता है पतंग मन मारे-- ’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे, क्या न मरण भी हाथ हमारे? शरण किसे छलता है?’ दोनों ओर प्रेम पलता है। दीपक के जलने में आली, फिर भी है जीवन की लाली। किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली, किसका वश चलता है? दोनों ओर प्रेम पलता है। जगती वणिग्वृत्ति है रखती, उसे चाहती जिससे चखती; काम नहीं, परिणाम निरखती। मुझको ही खलता है। दोनों ओर प्रेम पलता है। धन्यवाद 🙏

कदम मिलाकर चलना होगा (कविता)

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कविता - कदम मिलाकर चलना होगा कवि - अटल बिहारी बाजपेई कविता हुई का आरंभ  बाधाएं आती हैं आएं घिरें प्रलय की घोर घटाएं, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं, निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा. कदम मिलाकर चलना होगा हास्य-रूदन में, तूफानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा कदम मिलाकर चला होगा उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा कदम मिलाकर चलना होगा सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते, पावस बनकर ढलना होगा कदम मिलाकर चलना होगा कुछ कांटों से सज्जित जीवन, प्रखर प्यार से वंचित यौवन, नीरवता से मुखरित मधुबन, परहित अर्पित अपना तन-मन, जीवन को शत-शत आहुति में, जलना होगा, गलना होगा क़दम मिलाकर चलना होगा धन्यवाद 🙏

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी (कविता)

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कविता- जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी  कवयित्री - सुभद्राकुमारी चौहान कविता का आरंभ  सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,  गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।  चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥  कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,  लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,  नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,  बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,  देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,  नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,  सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। ...

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये (कविता)

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कविता- कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये  कवि-  दुष्यंत कुमार कविता का आरंभ  कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये धन्यवाद 🙏

प्रेम (कविता)

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कविता - प्रेम  कवि - सुमित्रानंदन पंत कविता का आरंभ  मैंने गुलाब की मौन शोभा को देखा ! उससे विनती की तुम अपनी अनिमेष सुषमा को शुभ्र गहराइयों का रहस्य मेरे मन की आँखों में खोलो ! मैं अवाक् रह गया ! वह सजीव प्रेम था ! मैंने सूँघा, वह उन्मुक्त प्रेम था ! मेरा हृदय असीम माधुर्य से भर गया ! मैंने गुलाब को ओंठों से लगाया ! उसका सौकुमार्य शुभ्र अशरीरी प्रेम था ! मैं गुलाब की अक्षय शोभा को निहारता रह गया ! धन्यवाद 🙏

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद (कविता)

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कविता -रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद  कवि - रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,  आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!  उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,  और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।  जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?  मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;  और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी  चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।  आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का; आज उठता और कल फिर फूट जाता है; किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?  बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।  मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,  देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?  स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?  आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,  आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,  और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,  इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।  मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी  कल्पना की जीभ में भी धार होती है,  वाण ही होत...

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