संदेश

भाषा लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

हिंदी भाषा का महत्व

विश्व में अंग्रेज़ी और चीनी  के बाद हिंदी दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी  भारत की आधिकारिक भाषा और राजभाषा है। हिंदी नेपाल, मॉरीशस और फिजी जैसे अन्य देशों में व्यापक रूप से बोली जाती है। हिंदी श्रेष्ठ भाषा तथा वैज्ञानिक भाषा है जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। सीखने वालों के लिए भी सहज और सरल भाषा है इसलिए हिंदी की लोकप्रियता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। हिंदी भाषा का साहित्य और व्याकरण समृद्ध है जिसका विकास मध्यकाल में हुआ था। हिंदी कई बोलियों जैसे भोजपुरी, अवधी, हरियाणवी और राजस्थानी की भी मातृभाषा है। हिन्दी का व्याकरण हिन्दी भाषा का आधार है, जिसके कारण हिन्दी व्याकरण का व्यवस्थित और व्यापक अध्ययन आवश्यक हो जाता है। हिंदी  व्याकरण में, वाक्य के मूल तत्वों को पाद कहा जाता है। एक पाद एक संज्ञा या क्रिया हो सकता है, या शब्दों का एक समूह वाक्य में एक इकाई के रूप में कार्य कर सकता है। पद हिंदी व्याकरण की सबसे छोटी इकाई है जिसे छोटी इकाइयों में विभाजित नहीं किया जा सकता है। हिन्दी व्याकरण वाणी के आठ भागों को भी पहचानता है, अर्थात्, संज्ञा (संज्...

निराशावादी (कविता)

चित्र
कविता- निराशावादी  कवि- रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास । क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ? तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है? बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो । धन्यवाद   🙏

अपने दिल का हाल यारो (ग़ज़ल)

चित्र
ग़ज़ल- अपने दिल का हाल यारो  ग़ज़लकार- शमशेर बहादुर सिंह ग़ज़ल का आरंभ  अपने दिल का हाल यारो, हम किसी से क्या कहें; कोई भी ऎसा नहीं मिलता जिसे अपना कहें। हो चुकी है जब ख़त्म अपनी ज़िन्दगी की दास्ताँ उनकी फ़रमाइश हुई है, इसको दोबारा कहें! आज इक ख़ामोश मातम-सा हमारे दिल में है: ख़ाब के से दिन हैं, वर्ना हम इसे जीना कहें। यास! दिल को बांध, सर पर जल्द साया कर, जुनूँ दम नहीं इतना जो तुमसे साँस का धोका कहें। देखकर आख़ीर वक़्त उनकी मौहब्बत की नज़र हम को याद आया वो कुछ कहना जिसे शिकवा कहें। उनकी पुरहसरत निगाहें देख कर रहम आ गया वर्ना जी में था कि हम भी हँस के दीवाना कहें। काफ़िले वालो, कहाँ जाते हो सहरा की तरफ़, आओ बैठो तुमसे हम मजनूँ का अफ़साना कहें। मुश्कबू-ए-जुल्फ़ उसकी, घेर ले जिस जा हमें, दिल ये कहता है, उसी को अपना काशाना कहें। धन्यवाद 🙏

परदे में क़ैद औरत की गुहार (गीत)

चित्र
गीत- परदे में क़ैद औरत की गुहार  गीतकार- भारतेंदु हरिश्चंद्र  * यह गीत भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से लिया गया है।  गीत का आरंभ  लिखाय नाहीं देत्यो पढ़ाय नाहीं देत्यो। सैयाँ फिरंगिन बनाय नाहीं देत्यो॥ लहँगा दुपट्टा नीको न लागै। मेमन का गाउन मँगाय नाहीं देत्यो।। वै गोरिन हम रंग सँवलिया। नदिया प बँगला छवाय नाहीं देत्यो॥ सरसों का उबटन हम ना लगइबे। साबुन से देहियाँ मलाय नाहीं देत्यो॥ डोली मियाना प कब लग डोलौं। घोड़वा प काठी कसाय नाहीं देत्यो॥ कब लग बैठीं काढ़े घुँघटवा। मेला तमासा जाये नाहीं देत्यो॥ लीक पुरानी कब लग पीटों। नई रीत-रसम चलाय नाहीं देत्यो॥  गोबर से ना लीपब-पोतब। चूना से भितिया पोताय नाहीं देत्यों।। खुसलिया छदमी ननकू हन काँ। विलायत काँ काहे पठाय नाहीं देत्यो॥ धन दौलत के कारन बलमा। समुंदर में बजरा छोड़ाय नाहीं देत्यो॥ बहुत दिनाँ लग खटिया तोड़िन। हिंदुन काँ काहे जगाय नाहीं देत्यो॥ दरस बिना जिय तरसत हमरा। कैसर का काहे देखाय नाहीं देत्यो॥ ‘हिज्रप्रिया’ तोरे पैयाँ परत है। ‘पंचा’ में एहका छपाय नाहीं देत्यो॥ धन्यवाद 🙏

विचार आते है (कविता)

चित्र
कविता - विचार आते हैं  कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध कविता का आरंभ  विचार आते हैं लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक़्त पीठ पर सिर पर उठाते समय भार परिश्रम करते समय चांद उगता है व पानी में झलमलाने लगता है हृदय के पानी में विचार आते हैं लिखते समय नहीं पत्थर ढोते वक़्त पीठ पर उठाते वक़्त बोझ साँप मारते समय पिछवाड़े बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त पत्थर पहाड़ बन जाते हैं नक्शे बनते हैं भौगोलिक पीठ कच्छप बन जाती है समय पृथ्वी बन जाता है धन्यवाद 🙏

दोनों ओर प्रेम पलता है(कविता)

चित्र
कविता - दोनों ओर प्रेम पलता है  कवि - मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  दोनों ओर प्रेम पलता है। सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है! सीस हिलाकर दीपक कहता-- ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’ पर पतंग पड़ कर ही रहता  कितनी विह्वलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है। बचकर हाय! पतंग मरे क्या? प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या? जले नही तो मरा करे क्या? क्या यह असफलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है। कहता है पतंग मन मारे-- ’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे, क्या न मरण भी हाथ हमारे? शरण किसे छलता है?’ दोनों ओर प्रेम पलता है। दीपक के जलने में आली, फिर भी है जीवन की लाली। किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली, किसका वश चलता है? दोनों ओर प्रेम पलता है। जगती वणिग्वृत्ति है रखती, उसे चाहती जिससे चखती; काम नहीं, परिणाम निरखती। मुझको ही खलता है। दोनों ओर प्रेम पलता है। धन्यवाद 🙏

साहित्यशास्त्र के प्रमुख भारतीय सिद्धांत

चित्र
साहित्यशास्त्र के सिद्धांत भारतीय सिद्धांत                    प्रवर्त्तक  रस                         आचार्य भरत अलंकार                  आचार्य भामह  रीति                        आचार्य वामन  ध्वनि                       आनंदवर्धन  वक्रोक्ति                    कुंतक औचित्य                    क्षेमैंद्र उत्पत्तिवाद                भट्ट लोल्लट अनुमतिवाद               आचार्य शंकुक भुक्तिवाद या भोगवाद   आचार्य भट्टनायक अभिव्यक्तिवाद            अभिनवगुप्त छायावाद  ...

कदम मिलाकर चलना होगा (कविता)

चित्र
कविता - कदम मिलाकर चलना होगा कवि - अटल बिहारी बाजपेई कविता हुई का आरंभ  बाधाएं आती हैं आएं घिरें प्रलय की घोर घटाएं, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं, निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा. कदम मिलाकर चलना होगा हास्य-रूदन में, तूफानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा कदम मिलाकर चला होगा उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा कदम मिलाकर चलना होगा सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते, पावस बनकर ढलना होगा कदम मिलाकर चलना होगा कुछ कांटों से सज्जित जीवन, प्रखर प्यार से वंचित यौवन, नीरवता से मुखरित मधुबन, परहित अर्पित अपना तन-मन, जीवन को शत-शत आहुति में, जलना होगा, गलना होगा क़दम मिलाकर चलना होगा धन्यवाद 🙏

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी (कविता)

चित्र
कविता- जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी  कवयित्री - सुभद्राकुमारी चौहान कविता का आरंभ  सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,  गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।  चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥  कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,  लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,  नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,  बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,  देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,  नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,  सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। ...

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये (कविता)

चित्र
कविता- कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये  कवि-  दुष्यंत कुमार कविता का आरंभ  कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये धन्यवाद 🙏

प्रेम (कविता)

चित्र
कविता - प्रेम  कवि - सुमित्रानंदन पंत कविता का आरंभ  मैंने गुलाब की मौन शोभा को देखा ! उससे विनती की तुम अपनी अनिमेष सुषमा को शुभ्र गहराइयों का रहस्य मेरे मन की आँखों में खोलो ! मैं अवाक् रह गया ! वह सजीव प्रेम था ! मैंने सूँघा, वह उन्मुक्त प्रेम था ! मेरा हृदय असीम माधुर्य से भर गया ! मैंने गुलाब को ओंठों से लगाया ! उसका सौकुमार्य शुभ्र अशरीरी प्रेम था ! मैं गुलाब की अक्षय शोभा को निहारता रह गया ! धन्यवाद 🙏

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद (कविता)

चित्र
कविता -रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद  कवि - रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,  आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!  उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,  और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।  जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?  मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;  और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी  चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।  आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का; आज उठता और कल फिर फूट जाता है; किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?  बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।  मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,  देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?  स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?  आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,  आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,  और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,  इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।  मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी  कल्पना की जीभ में भी धार होती है,  वाण ही होत...

हाँ दोस्त (कविता)

चित्र
कविता- हाँ, दोस्त  कवि-  अज्ञेय   कविता का आरंभ  तुम ने पहाड़ की पगडंडी चुनी और मैं ने सागर की लहर। पहाड़ की पगडंडी : सँकरी, पथरीली, ढाँटी,पर स्पष्ट लक्ष्य की ओर जाती हुई : मातबर और भरोसेदार पगडंडी जो एक दिन निश्चय तुम्हें पड़ाव पर पहुँचा देगी। सागर की लहर विशाल, चिकनी, सपाट पर बिछलती फिसलती हमेशा अज्ञात अदृश्य को टेरती हुई, बेभरोस और आवारा... लहर जो न कभी कहीं पहुँचेगी न पहुँचाएगी न पहुँचने देगी, जो डुबोएगी नहीं तो वहीं लौटा लाएगी जहाँ से चले थे, सिवा इस के कि वह वहीं तब तक नहीं रह गया होगा। ठीक है, दोस्त मैं ने लहर चुनी तुम ने पगडंडी : तुम अपनी राह पर सुख से तो हो? जानते तो हो कि कहाँ हो? मैं-मैं मानता हूँ कि इतना ही बहुत है कि अभी जानता हूँ कि आशीर्वाद में हूँ-जियो, मेरे दोस्त, जियो, जियो, जियो  धन्यवाद 🙏

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है (कविता)

चित्र
कविता - सिंहासन खाली करो कि जनता आती है  कवि-  रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,  मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;  दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।   जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,  जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,  जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे  तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।  जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,  "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"  "सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"  'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"  मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,  जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;  अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के  जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।  लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,  जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;  दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।  हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,...

नर हो न निराश करो मन को (कविता)

चित्र
 कविता - नर हो, न निराश करो मन को  कवि- मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  कुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन को। संभलो कि सुयोग न जाय चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलंबन को नर हो, न निराश करो मन को। जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो उठके अमरत्व विधान करो दवरूप रहो भव कानन को नर हो न निराश करो मन को। निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे सब जाय अभी पर मान रहे कुछ हो न तजो निज साधन को नर हो, न निराश करो मन को। प्रभु ने तुमको कर दान किए सब वांछित वस्तु विधान किए तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो फिर है यह किसका दोष कहो समझो न अलभ्य किसी धन को नर हो, न निराश करो मन को।  किस गौरव के तुम योग्य नहीं कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं जन हो तुम भी जगदीश्वर के सब है जिसके अपने घर के  फिर दुर्लभ क्या उसके जन को न...

कविता -जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे

चित्र
कविता -जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे  कवि - रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सम्भालो,  चट्टानों की छाती से दूध निकालो,  है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो,  पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो ।  चढ़ तुँग शैल शिखरों पर सोम पियो रे !  योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे !  जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है,  चिनगी बन फूलों का पराग जलता है,  सौन्दर्य बोध बन नई आग जलता है,  ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है ।  अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे !  गरजे कृशानु तब कँचन शुद्ध करो रे !  जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है,  भामिनी वही तरुणी, नर वही तरुण है,  है वही प्रेम जिसकी तरँग उच्छल है,  वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है ।  उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है,  तलवार प्रेम से और तेज होती है !  छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,  मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए,  दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है,  मरता है जो एक ही बार मरता है ।  तुम स्वयं मृत्यु के ...

तोड़ती पत्थर (कविता)

चित्र
कविता - तोड़ती पत्थर  कवि - निराला कविता का आरंभ  वह तोड़ती पत्थर; देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर- वह तोड़ती पत्थर। कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार; श्याम तन, भर बंधा यौवन, नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन, गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार:- सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार। चढ़ रही थी धूप; गर्मियों के दिन,  दिवा का तमतमाता रूप; उठी झुलसाती हुई लू रुई ज्यों जलती हुई भू, गर्द चिनगीं छा गई, प्रायः हुई दुपहर :- वह तोड़ती पत्थर। देखते देखा मुझे तो एक बार उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार; देखकर कोई नहीं, देखा मुझे उस दृष्टि से जो मार खा रोई नहीं, सजा सहज सितार, सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार। एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर, ढुलक माथे से गिरे सीकर, लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा- "मैं तोड़ती पत्थर।" धन्यवाद  🙏

कुकुरमुत्ता (कविता)

चित्र
कविता - कुकुरमुत्ता 🍄  कवि - निराला  कविता का आरंभ  एक थे नव्वाब, फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। बड़ी बाड़ी में लगाए देशी पौधे भी उगाए रखे माली, कई नौकर गजनवी का बाग मनहर लग रहा था। एक सपना जग रहा था सांस पर तहजबी की, गोद पर तरतीब की। क्यारियां सुन्दर बनी चमन में फैली घनी। फूलों के पौधे वहाँ लग रहे थे खुशनुमा। बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद, जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। फ़लों के भी पेड़ थे, आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध, लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द, चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ। साफ़ राह, सरा दानों ओर, दूर तक फैले हुए कुल छोर, बीच में आरामगाह दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; वहीं गन्दे में उगा देता हुआ ब...

आज मैं अकेला हूँ(कविता)

चित्र
कविता-आज मैं अकेला हूँ  कवि त्रिलोचन  कविता का आरंभ  आज मैं अकेला हूँ अकेले रहा नहीं जाता। जीवन मिला है यह रतन मिला है यह धूल में कि फूल में मिला है तो मिला है यह मोल-तोल इसका अकेले कहा नहीं जाता सुख आये दुख आये दिन आये रात आये फूल में कि धूल में आये जैसे जब आये सुख दुख एक भी अकेले सहा नहीं जाता चरण हैं चलता हूँ चलता हूँ चलता हूँ फूल में कि धूल में चलता मन चलता हूँ ओखी धार दिन की अकेले बहा नहीं जाता। धन्यवाद  🙏

उनका हो जाता हूँ (कविता)

चित्र
कविता - उनका हो जाता हूँ कवि - त्रिलोचन  चोट जभी लगती है तभी हँस देता हूँ देखनेवालों की आँखें उस हालत में देखा ही करती हैं आँसू नहीं लाती हैं और जब पीड़ा बढ़ जाती है बेहिसाब तब जाने-अनजाने लोगों में जाता हूँ उनका हो जाता हूँ हँसता हँसाता हूँ। धन्यवाद 🙏

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

शिवशंभू के चिट्ठे (निबंध), बालमुकुंद गुप्त

ईदगाह (प्रेमचंद)

मेरे राम का मुकुट भीग रहा है

निराशावादी (कविता)

हिंदी रचना पर आधारित फिल्में