ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

कविता -जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे

कविता -जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे 

कवि - रामधारी सिंह "दिनकर"
कविता का आरंभ 

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सम्भालो, 

चट्टानों की छाती से दूध निकालो, 

है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो, 

पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो । 

चढ़ तुँग शैल शिखरों पर सोम पियो रे ! 

योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे ! 

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है, 

चिनगी बन फूलों का पराग जलता है, 

सौन्दर्य बोध बन नई आग जलता है, 

ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है । 

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे ! 

गरजे कृशानु तब कँचन शुद्ध करो रे ! 

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है, 

भामिनी वही तरुणी, नर वही तरुण है, 

है वही प्रेम जिसकी तरँग उच्छल है, 

वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है । 

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है, 

तलवार प्रेम से और तेज होती है ! 

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए, 

मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए, 

दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है, 

मरता है जो एक ही बार मरता है । 

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे ! 

जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे ! 

स्वातन्त्रय जाति की लगन व्यक्ति की धुन है, 

बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है !

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे 

जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे! 

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है, 

कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है, 

नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है, 

वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है । 

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे ! 

धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे ! 

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है, 

सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है, 

विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिन्तन है, 

जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है । 


सबसे स्वतन्त्र रस जो भी अनघ पिएगा ! 

पूरा जीवन केवल वह वीर जिएगा !

धन्यवाद 🙏

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