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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

हरि घास पर क्षणभर(कविता)

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कविता- हरि घास पर क्षणभर कवि- अज्ञेय रची गई -  14 अक्टूबर 1949 को प्रकाशित हुई - 1949 को  कविता का आरंभ  आओ बैठें इसी ढाल की हरी घास पर। माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है, और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह सदा बिछी है-हरी, न्यौती, कोई आ कर रौंदे। आओ, बैठो तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस, नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की। चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे बोलो, स्वगत गुनगुनाओ, चाहे चुप रह जाओ- हो प्रकृतस्थ : तनो मत कटी-छँटी उस बाड़ सरीखी, नमो, खुल खिलो, सहज मिलो अन्त:स्मित, अन्त:संयत हरी घास-सी। क्षण-भर भुला सकें हम नगरी की बेचैन बुदकती गड्ड-मड्ड अकुलाहट- और न मानें उसे पलायन; क्षण-भर देख सकें आकाश, धरा, दूर्वा, मेघाली, पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे, फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया- और न सहसा चोर कह उठे मन में- प्रकृतिवाद है स्खलन क्योंकि युग जनवादी है। क्षण-भर हम न रहें रह कर भी : सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में किसी दूर सागर की लोल लहर की जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं- जैसे सीपी सदा सुना करती है।...

अकाल दर्शन (कविता)

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कविता - अकाल दर्शन कवि- धूमिल प्रकाशन- सड़क से संसद तक में 1972 में हुआ है  कविता का आरंभ  भूख कौन उपजाता है : वह इरादा जो तरह देता है या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है? उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया। उसने गलियों और सड़कों और घरों में बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया और हँसने लगा। मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा – 'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं' इससे वे भी सहमत हैं जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए रसद देते हैं। उनका कहना है कि बच्चे हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं। लेकिन यही वे भूलते हैं दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं हमारे अपराध फूलते हैं मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर 'जनता के हित में' स्थानांतरित हो गया। मैंने खुद को समझाया – यार! उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह क्यों झिझकते हो? क्या तुम्हें किसी का सामना करना है? तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की सिर्फ़ पीठ देख सकते हो। और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने ...

रोटी और संसद(कविता), धूमिल(कवि)

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रोटी और संसद(कविता) धूमिल(कवि) प्रकाशन - 1972 में सड़क से संसद तक कविता का आरंभ  एक आदमी  रोटी बेलता है  एक आदमी रोटी खाता है  एक तीसरा आदमी भी है  जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है  वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है  मैं पूछता हूँ—  ‘यह तीसरा आदमी कौन है?’  मेरे देश की संसद मौन है। निष्कर्ष - इस कविता में कवि ने किसान वर्ग की मजबूरी का चित्रण किया है राजनीति पर करारा व्यंग्य  किया है  मूलभूत जरूरतों के साथ खिलवाड़ करने वाले नेताओं पर प्रहार किया है भ्रष्ट नेताओं की और संकेत किया है  संसद में बैठे हुए सदस्यों को उद्देशित करके कहा है  रोटी को तीन वर्ग में विभाजित किया है  रोटी की दशा का चित्रण किया है।  धन्यवाद 🙏

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र(कविता)

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कविता - द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! कवि - सुमित्रानंदन पत्र रचनाकाल - फरवरी 1934 है प्रकाशन - युगांत (1935) और  पल्लवनि (1940) काव्य संग्रह में हुआ है कविता   द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!  हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!  हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,  तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!  निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग! जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन, च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम झर-झर अनन्त में हो विलीन! कंकाल-जाल जग में फैले  फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली!  प्राणों की मर्मर से मुखरित  जीव की मांसल हरियाली!  मंजरित विश्व में यौवन के जग कर जग का पिक, मतवाली निज अमर प्रणय-स्वर मदिरा से भर दे फिर नव-युग की प्याली! निष्कर्ष -  यह प्रगतिवादी कविता है , नवयुग निर्माण की भावना है कविता में , पुरानी मान्यताओं और विचारों को नष्ट करने  बात कही है कविता में, पुरानी  मान्यताएँ  जड़वत और निर्जीव हो गई है,  परिवर्तन ही कवि का उद्देश्य है,  नय युग के साथ चलने की बात कही कवि ने इस कविता में । धन्यवाद 🙏

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