ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

रोटी और संसद(कविता), धूमिल(कवि)

रोटी और संसद(कविता)

धूमिल(कवि)

प्रकाशन - 1972 में सड़क से संसद तक

कविता का आरंभ 

एक आदमी 

रोटी बेलता है 

एक आदमी रोटी खाता है 

एक तीसरा आदमी भी है 

जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है 

वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है 

मैं पूछता हूँ— 

‘यह तीसरा आदमी कौन है?’ 

मेरे देश की संसद मौन है।

निष्कर्ष - इस कविता में कवि ने किसान वर्ग की मजबूरी का चित्रण किया है

राजनीति पर करारा व्यंग्य  किया है 

मूलभूत जरूरतों के साथ खिलवाड़ करने वाले नेताओं पर प्रहार किया है

भ्रष्ट नेताओं की और संकेत किया है 

संसद में बैठे हुए सदस्यों को उद्देशित करके कहा है 

रोटी को तीन वर्ग में विभाजित किया है 

रोटी की दशा का चित्रण किया है। 

धन्यवाद 🙏

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