ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

कविता - फिर विकल है प्राण मेरे कवयित्री - महादेवी वर्मा

कविता - फिर विकल है प्राण मेरे 

कवयित्री - महादेवी वर्मा 

फिर विकल हैं प्राण मेरे! 

तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है! 
जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है? 
क्यों मुझे प्राचीन बनकर 
आज मेरे श्वास घेरे? 

सिंधु की निःसीमता पर लघु लहर का लास कैसा? 
दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा? 
दे रही मेरी चिरंतनता 
क्षणों के साथ फेरे! 

बिंबग्राहकता कणों को शलभ को चिर साधना दी, 
पुलक से नभ भर धरा को कल्पनामय वेदना दी; 
मत कहो हे विश्व 'झूठे 
हैं अतुल वरदान तेरे!' 

नभ डुबा पाया न अपनी बाढ़ में भी क्षुद्र तारे, 
ढूँढ़ने करुणा मृदुल घन चीर कर तूफान हारे; 
अंत के तम में बुझे क्यों 
आदि के अरमान मेरे! 

धन्यवाद 🙏

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