ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र(कविता)

कविता - द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!

कवि - सुमित्रानंदन पत्र

रचनाकाल - फरवरी 1934 है

प्रकाशन - युगांत (1935) और  पल्लवनि (1940) काव्य संग्रह में हुआ है

कविता 

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! 

हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण! 

हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत, 

तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!! 

निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग!

जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन,

च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम

झर-झर अनन्त में हो विलीन!

कंकाल-जाल जग में फैले 

फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली! 

प्राणों की मर्मर से मुखरित 

जीव की मांसल हरियाली! 

मंजरित विश्व में यौवन के

जग कर जग का पिक, मतवाली

निज अमर प्रणय-स्वर मदिरा से

भर दे फिर नव-युग की प्याली!

निष्कर्ष -  यह प्रगतिवादी कविता है ,
नवयुग निर्माण की भावना है कविता में ,
पुरानी मान्यताओं और विचारों को नष्ट करने बात कही है कविता में,
पुरानी  मान्यताएँ  जड़वत और निर्जीव हो गई है, 
परिवर्तन ही कवि का उद्देश्य है, 
नय युग के साथ चलने की बात कही कवि ने इस कविता में ।

धन्यवाद 🙏


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