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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

निबंध -भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती हैनिबंधकार -भारतेंदु हरिश्चंद्र

निबंध -भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है निबंधकार -भारतेंदु हरिश्चंद्र निबंध का आरंभ   आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा तो प्रगट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहाँ सारा समाज ही एकत्र है। राबर्ट साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर जहाँ हो वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो। जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुलफजल, बीरबल,टोडरमल को भी उत्पन्न किया। यहाँ राबर्ट साहब अकबर हैं जो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुलफजल और टोडरमल हैं। हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना ...

सब जीवन बीता जाता है (कविता)

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कविता - सब जीवन बीता जाता है  कवि - जयशंकर शंकर प्रसाद  कविता का आरंभ  सब जीवन बीता जाता है धूप छाँह के खेल सदॄश सब जीवन बीता जाता है समय भागता है प्रतिक्षण में, नव-अतीत के तुषार-कण में, हमें लगा कर भविष्य-रण में, आप कहाँ छिप जाता है सब जीवन बीता जाता है बुल्ले, नहर, हवा के झोंके, मेघ और बिजली के टोंके, किसका साहस है कुछ रोके, जीवन का वह नाता है सब जीवन बीता जाता है वंशी को बस बज जाने दो, मीठी मीड़ों को आने दो, आँख बंद करके गाने दो जो कुछ हमको आता है सब जीवन बीता जाता  धन्यवाद 🙏

कुकुरमुत्ता (कविता)

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कविता - कुकुरमुत्ता 🍄  कवि - निराला  कविता का आरंभ  एक थे नव्वाब, फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। बड़ी बाड़ी में लगाए देशी पौधे भी उगाए रखे माली, कई नौकर गजनवी का बाग मनहर लग रहा था। एक सपना जग रहा था सांस पर तहजबी की, गोद पर तरतीब की। क्यारियां सुन्दर बनी चमन में फैली घनी। फूलों के पौधे वहाँ लग रहे थे खुशनुमा। बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद, जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। फ़लों के भी पेड़ थे, आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध, लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द, चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ। साफ़ राह, सरा दानों ओर, दूर तक फैले हुए कुल छोर, बीच में आरामगाह दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; वहीं गन्दे में उगा देता हुआ ब...

आज मैं अकेला हूँ(कविता)

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कविता-आज मैं अकेला हूँ  कवि त्रिलोचन  कविता का आरंभ  आज मैं अकेला हूँ अकेले रहा नहीं जाता। जीवन मिला है यह रतन मिला है यह धूल में कि फूल में मिला है तो मिला है यह मोल-तोल इसका अकेले कहा नहीं जाता सुख आये दुख आये दिन आये रात आये फूल में कि धूल में आये जैसे जब आये सुख दुख एक भी अकेले सहा नहीं जाता चरण हैं चलता हूँ चलता हूँ चलता हूँ फूल में कि धूल में चलता मन चलता हूँ ओखी धार दिन की अकेले बहा नहीं जाता। धन्यवाद  🙏

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