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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

हिंदी भाषा का महत्व

विश्व में अंग्रेज़ी और चीनी  के बाद हिंदी दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी  भारत की आधिकारिक भाषा और राजभाषा है। हिंदी नेपाल, मॉरीशस और फिजी जैसे अन्य देशों में व्यापक रूप से बोली जाती है। हिंदी श्रेष्ठ भाषा तथा वैज्ञानिक भाषा है जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। सीखने वालों के लिए भी सहज और सरल भाषा है इसलिए हिंदी की लोकप्रियता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। हिंदी भाषा का साहित्य और व्याकरण समृद्ध है जिसका विकास मध्यकाल में हुआ था। हिंदी कई बोलियों जैसे भोजपुरी, अवधी, हरियाणवी और राजस्थानी की भी मातृभाषा है। हिन्दी का व्याकरण हिन्दी भाषा का आधार है, जिसके कारण हिन्दी व्याकरण का व्यवस्थित और व्यापक अध्ययन आवश्यक हो जाता है। हिंदी  व्याकरण में, वाक्य के मूल तत्वों को पाद कहा जाता है। एक पाद एक संज्ञा या क्रिया हो सकता है, या शब्दों का एक समूह वाक्य में एक इकाई के रूप में कार्य कर सकता है। पद हिंदी व्याकरण की सबसे छोटी इकाई है जिसे छोटी इकाइयों में विभाजित नहीं किया जा सकता है। हिन्दी व्याकरण वाणी के आठ भागों को भी पहचानता है, अर्थात्, संज्ञा (संज्...

क्यों इन तारों को उलझाते? (कविता)

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कविता - क्यों इन तारों को उलझाते?  कवयित्री - महादेवी वर्मा कविता का आरंभ  क्यों इन तारों को उलझाते? अनजाने ही प्राणों में क्यों आ आ कर फिर जाते? पल में रागों को झंकृत कर, फिर विराग का अस्फुट स्वर भर, मेरी लघु जीवन वीणा पर क्या यह अस्फुट गाते? लय में मेरा चिर करुणा-धन कम्पन में सपनों का स्पन्दन गीतों में भर चिर सुख चिर दुख कण कण में बिखराते! मेरे शैशव के मधु में घुल मेरे यौवन के मद में ढुल मेरे आँसू स्मित में हिल मिल मेरे क्यों न कहाते? धन्यवाद 🙏

मुझे कदम-कदम पर (कविता)

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कविता - मुझे कदम-कदम पर  कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध कविता का आरंभ  मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं बांहें फैलाए! एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ, बहुत अच्छे लगते हैं उनके तजुर्बे और अपने सपने सब सच्चे लगते हैं, अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है, मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ, जाने क्या मिल जाए! मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है, हर एक छाती में आत्मा अधीरा है प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है, मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में महाकाव्य पीडा है, पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ, इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ, अजीब है जिंदगी! बेवकूफ बनने की खातिर ही सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ, और यह देख-देख बडा मजा आता है कि मैं ठगा जाता हूँ हृदय में मेरे ही, प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है, कि जगत स्वायत्त हुआ जाता है। कहानियां लेकर और मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते जहां जरा खडे होकर बातें कुछ करता हूँ उपन्यास मिल जाते । धन्यवाद 🙏

अपने दिल का हाल यारो (ग़ज़ल)

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ग़ज़ल- अपने दिल का हाल यारो  ग़ज़लकार- शमशेर बहादुर सिंह ग़ज़ल का आरंभ  अपने दिल का हाल यारो, हम किसी से क्या कहें; कोई भी ऎसा नहीं मिलता जिसे अपना कहें। हो चुकी है जब ख़त्म अपनी ज़िन्दगी की दास्ताँ उनकी फ़रमाइश हुई है, इसको दोबारा कहें! आज इक ख़ामोश मातम-सा हमारे दिल में है: ख़ाब के से दिन हैं, वर्ना हम इसे जीना कहें। यास! दिल को बांध, सर पर जल्द साया कर, जुनूँ दम नहीं इतना जो तुमसे साँस का धोका कहें। देखकर आख़ीर वक़्त उनकी मौहब्बत की नज़र हम को याद आया वो कुछ कहना जिसे शिकवा कहें। उनकी पुरहसरत निगाहें देख कर रहम आ गया वर्ना जी में था कि हम भी हँस के दीवाना कहें। काफ़िले वालो, कहाँ जाते हो सहरा की तरफ़, आओ बैठो तुमसे हम मजनूँ का अफ़साना कहें। मुश्कबू-ए-जुल्फ़ उसकी, घेर ले जिस जा हमें, दिल ये कहता है, उसी को अपना काशाना कहें। धन्यवाद 🙏

परदे में क़ैद औरत की गुहार (गीत)

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गीत- परदे में क़ैद औरत की गुहार  गीतकार- भारतेंदु हरिश्चंद्र  * यह गीत भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से लिया गया है।  गीत का आरंभ  लिखाय नाहीं देत्यो पढ़ाय नाहीं देत्यो। सैयाँ फिरंगिन बनाय नाहीं देत्यो॥ लहँगा दुपट्टा नीको न लागै। मेमन का गाउन मँगाय नाहीं देत्यो।। वै गोरिन हम रंग सँवलिया। नदिया प बँगला छवाय नाहीं देत्यो॥ सरसों का उबटन हम ना लगइबे। साबुन से देहियाँ मलाय नाहीं देत्यो॥ डोली मियाना प कब लग डोलौं। घोड़वा प काठी कसाय नाहीं देत्यो॥ कब लग बैठीं काढ़े घुँघटवा। मेला तमासा जाये नाहीं देत्यो॥ लीक पुरानी कब लग पीटों। नई रीत-रसम चलाय नाहीं देत्यो॥  गोबर से ना लीपब-पोतब। चूना से भितिया पोताय नाहीं देत्यों।। खुसलिया छदमी ननकू हन काँ। विलायत काँ काहे पठाय नाहीं देत्यो॥ धन दौलत के कारन बलमा। समुंदर में बजरा छोड़ाय नाहीं देत्यो॥ बहुत दिनाँ लग खटिया तोड़िन। हिंदुन काँ काहे जगाय नाहीं देत्यो॥ दरस बिना जिय तरसत हमरा। कैसर का काहे देखाय नाहीं देत्यो॥ ‘हिज्रप्रिया’ तोरे पैयाँ परत है। ‘पंचा’ में एहका छपाय नाहीं देत्यो॥ धन्यवाद 🙏

विचार आते है (कविता)

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कविता - विचार आते हैं  कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध कविता का आरंभ  विचार आते हैं लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक़्त पीठ पर सिर पर उठाते समय भार परिश्रम करते समय चांद उगता है व पानी में झलमलाने लगता है हृदय के पानी में विचार आते हैं लिखते समय नहीं पत्थर ढोते वक़्त पीठ पर उठाते वक़्त बोझ साँप मारते समय पिछवाड़े बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त पत्थर पहाड़ बन जाते हैं नक्शे बनते हैं भौगोलिक पीठ कच्छप बन जाती है समय पृथ्वी बन जाता है धन्यवाद 🙏

दोनों ओर प्रेम पलता है(कविता)

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कविता - दोनों ओर प्रेम पलता है  कवि - मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  दोनों ओर प्रेम पलता है। सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है! सीस हिलाकर दीपक कहता-- ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’ पर पतंग पड़ कर ही रहता  कितनी विह्वलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है। बचकर हाय! पतंग मरे क्या? प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या? जले नही तो मरा करे क्या? क्या यह असफलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है। कहता है पतंग मन मारे-- ’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे, क्या न मरण भी हाथ हमारे? शरण किसे छलता है?’ दोनों ओर प्रेम पलता है। दीपक के जलने में आली, फिर भी है जीवन की लाली। किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली, किसका वश चलता है? दोनों ओर प्रेम पलता है। जगती वणिग्वृत्ति है रखती, उसे चाहती जिससे चखती; काम नहीं, परिणाम निरखती। मुझको ही खलता है। दोनों ओर प्रेम पलता है। धन्यवाद 🙏

साहित्यशास्त्र के प्रमुख भारतीय सिद्धांत

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साहित्यशास्त्र के सिद्धांत भारतीय सिद्धांत                    प्रवर्त्तक  रस                         आचार्य भरत अलंकार                  आचार्य भामह  रीति                        आचार्य वामन  ध्वनि                       आनंदवर्धन  वक्रोक्ति                    कुंतक औचित्य                    क्षेमैंद्र उत्पत्तिवाद                भट्ट लोल्लट अनुमतिवाद               आचार्य शंकुक भुक्तिवाद या भोगवाद   आचार्य भट्टनायक अभिव्यक्तिवाद            अभिनवगुप्त छायावाद  ...

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी (कविता)

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कविता- जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी  कवयित्री - सुभद्राकुमारी चौहान कविता का आरंभ  सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,  गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।  चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥  कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,  लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,  नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,  बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,  देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,  नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,  सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। ...

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये (कविता)

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कविता- कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये  कवि-  दुष्यंत कुमार कविता का आरंभ  कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये धन्यवाद 🙏

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद (कविता)

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कविता -रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद  कवि - रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,  आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!  उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,  और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।  जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?  मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;  और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी  चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।  आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का; आज उठता और कल फिर फूट जाता है; किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?  बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।  मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,  देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?  स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?  आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू? मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,  आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,  और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,  इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।  मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी  कल्पना की जीभ में भी धार होती है,  वाण ही होत...

हाँ दोस्त (कविता)

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कविता- हाँ, दोस्त  कवि-  अज्ञेय   कविता का आरंभ  तुम ने पहाड़ की पगडंडी चुनी और मैं ने सागर की लहर। पहाड़ की पगडंडी : सँकरी, पथरीली, ढाँटी,पर स्पष्ट लक्ष्य की ओर जाती हुई : मातबर और भरोसेदार पगडंडी जो एक दिन निश्चय तुम्हें पड़ाव पर पहुँचा देगी। सागर की लहर विशाल, चिकनी, सपाट पर बिछलती फिसलती हमेशा अज्ञात अदृश्य को टेरती हुई, बेभरोस और आवारा... लहर जो न कभी कहीं पहुँचेगी न पहुँचाएगी न पहुँचने देगी, जो डुबोएगी नहीं तो वहीं लौटा लाएगी जहाँ से चले थे, सिवा इस के कि वह वहीं तब तक नहीं रह गया होगा। ठीक है, दोस्त मैं ने लहर चुनी तुम ने पगडंडी : तुम अपनी राह पर सुख से तो हो? जानते तो हो कि कहाँ हो? मैं-मैं मानता हूँ कि इतना ही बहुत है कि अभी जानता हूँ कि आशीर्वाद में हूँ-जियो, मेरे दोस्त, जियो, जियो, जियो  धन्यवाद 🙏

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है (कविता)

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कविता - सिंहासन खाली करो कि जनता आती है  कवि-  रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,  मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;  दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।   जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,  जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,  जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे  तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।  जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,  "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"  "सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"  'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"  मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,  जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;  अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के  जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।  लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,  जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;  दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।  हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,...

साँप (कविता)

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कविता- साँप कवि- अज्ञेय  कविता का आरंभ  साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?) तब कैसे सीखा डँसना-- विष कहाँ पाया? धन्यवाद   🙏

नर हो न निराश करो मन को (कविता)

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 कविता - नर हो, न निराश करो मन को  कवि- मैथिलीशरण गुप्त कविता का आरंभ  कुछ काम करो, कुछ काम करो जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन को। संभलो कि सुयोग न जाय चला कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला समझो जग को न निरा सपना पथ आप प्रशस्त करो अपना अखिलेश्वर है अवलंबन को नर हो, न निराश करो मन को। जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो उठके अमरत्व विधान करो दवरूप रहो भव कानन को नर हो न निराश करो मन को। निज गौरव का नित ज्ञान रहे हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे सब जाय अभी पर मान रहे कुछ हो न तजो निज साधन को नर हो, न निराश करो मन को। प्रभु ने तुमको कर दान किए सब वांछित वस्तु विधान किए तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो फिर है यह किसका दोष कहो समझो न अलभ्य किसी धन को नर हो, न निराश करो मन को।  किस गौरव के तुम योग्य नहीं कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं जन हो तुम भी जगदीश्वर के सब है जिसके अपने घर के  फिर दुर्लभ क्या उसके जन को न...

कविता -जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे

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कविता -जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे  कवि - रामधारी सिंह "दिनकर" कविता का आरंभ  वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सम्भालो,  चट्टानों की छाती से दूध निकालो,  है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो,  पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो ।  चढ़ तुँग शैल शिखरों पर सोम पियो रे !  योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे !  जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है,  चिनगी बन फूलों का पराग जलता है,  सौन्दर्य बोध बन नई आग जलता है,  ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है ।  अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे !  गरजे कृशानु तब कँचन शुद्ध करो रे !  जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है,  भामिनी वही तरुणी, नर वही तरुण है,  है वही प्रेम जिसकी तरँग उच्छल है,  वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है ।  उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है,  तलवार प्रेम से और तेज होती है !  छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,  मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए,  दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है,  मरता है जो एक ही बार मरता है ।  तुम स्वयं मृत्यु के ...

बीती विभावरी जाग री (कविता)

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कविता - बीती विभावरी जाग री कवि - जयशंकर प्रसाद  कविता का आरंभ  बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी! खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा किसलय का अंचल डोल रहा लो यह लतिका भी भर ला‌ई- मधु मुकुल नवल रस गागरी अधरों में राग अमंद पिए अलकों में मलयज बंद किए तू अब तक सो‌ई है आली आँखों में भरे विहाग री! धन्यवाद 🙏

भोलाराम का जीव

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व्यंग्य कहानी - भोलाराम   का जीव कहानीकार - स्वर्गीय श्री हरिशंकर परसाई कहानी का आरंभ  ऐसा कभी नहीं हुआ था। धर्मराज लाखों वर्षो से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश के आधार पर स्वर्ग और नरक में निवास-स्थान अलाट करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था। सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोरों से बन्द किया कि मख्खी चपेट में आगई। उसे निकालते हुए वे बोले, ''महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पांच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआ, पर अभी तक यहां नहीं पहुंचा।'' धर्मराज ने पूछा, ''और वह दूत कहां है?'' ''महाराज, वह भी लापता है।'' इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहां आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत होगया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, ''अरे तू कहां रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहां है?'' यमदूत हाथ जोडक़र बोला, ...

हिंदी साहित्य में प्रमुख सम्प्रदाय

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प्रमुख सम्प्रदाय  श्री संप्रदाय - रामानुज  सनक संप्रदाय - निंबार्क  रुद्र संप्रदाय – विष्णु स्वामी  ब्राह्म संप्रदाय - माधवाचार्य  रामावत संप्रदाय - रामानंद  महानुभाव - महात्मा चक्रधर  वारकरी संप्रदाय - संत ज्ञानेश्वर  उदासी संप्रदाय - श्रीचंद  विश्नोई संप्रदाय – जंभनाथ निरंजनी संप्रदाय - हरिदास निरंजनी  सिख संप्रदाय - गुरु नानक देव  सतनामी संप्रदाय -  वीरभान (दादू के समकालीन) स्मार्त संप्रदाय – शंकराचार्य कादरी राधाबल्लभी संप्रदाय - गोसाई हितहरिवंश  हरिदासी (सखी) संप्रदाय - स्वामी हरिदास  चैतन्य या गौड़ीय संप्रदाय - चैतन्य महाप्रभु  दासस्य भक्ति - रामानुजाचार्य  पुष्टिमार्ग - बल्लभाचार्य  चिश्ती संप्रदाय – ख्वाजा आबू अब्दुल्ला चिश्ती सुहरावर्दी संप्रदाय -   सैयद जलालुद्दीन सुर्ख़पोश कादरी सम्प्रदाय – शेख अब्दुल कादिर जीलानी नक्शबंदी सम्प्रदाय – ख्वाजा वहाउद्दीन नक्शबंद वारकरी संप्रदाय के मूल प्रवर्तक पुंडलिक माने जाते हैं, किंतु अनेक ऐतिहासिक पुस्तकों में वारकरी संप्रदाय के प्रवर्तक संत ज्ञा...

उनका हो जाता हूँ (कविता)

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कविता - उनका हो जाता हूँ कवि - त्रिलोचन  चोट जभी लगती है तभी हँस देता हूँ देखनेवालों की आँखें उस हालत में देखा ही करती हैं आँसू नहीं लाती हैं और जब पीड़ा बढ़ जाती है बेहिसाब तब जाने-अनजाने लोगों में जाता हूँ उनका हो जाता हूँ हँसता हँसाता हूँ। धन्यवाद 🙏

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