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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

उत्तराफाल्गुनी के आसपास (निबंध)

निबंध-उत्तराफाल्गुनी के आसपास निबंधकार-कुबेरनाथ राय वर्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र है उत्तराफाल्गुनी। हमारे जीवन में गदह-पचीसी सावन-मनभावन है, बड़ी मौज रहती है, परंतु सत्ताइसवें के आते-आते घनघोर भाद्रपद के अशनि-संकेत मिलने लगते हैं और तीसी के वर्षों में हम विद्युन्मय भाद्रपद के काम, क्रोध और मोह का तमिस्त्र सुख भोगते हैं। इसी काल में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार हमारी सिसृक्षा कृतार्थ होती है। फिर चालीसवें लगते-लगते हम भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी में प्रवेश कर जाते हैं और दो-चार वर्ष बाद अर्थात उत्तराफाल्गुनी के अंतिम चरण में जरा और जीर्णता की आगमनी का समाचार काल-तुरंग दूर से ही हिनहिनाकर दे जाता है। वास्तव में सृजन-संपृक्त, सावधान, सतर्क, सचेत और कर्मठ जीवन जो हम जीते हैं वह है तीस और चालीस के बीच। फिर चालीस से पैंतालीस तक उत्तराफाल्गुनी का काल है। इसके अंदर पग-निक्षेप करते ही शरीर की षटउर्मियों में थकावट आने लगती है, 'अस्ति, जायते, वर्धते' - ये तीन धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं, उनका वेग कम होने लगता है और इनके विपरीत तीन 'विपतरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति' प्रबलतर ...

हिंदी भाषा का महत्व

विश्व में अंग्रेज़ी और चीनी  के बाद हिंदी दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी  भारत की आधिकारिक भाषा और राजभाषा है। हिंदी नेपाल, मॉरीशस और फिजी जैसे अन्य देशों में व्यापक रूप से बोली जाती है। हिंदी श्रेष्ठ भाषा तथा वैज्ञानिक भाषा है जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। सीखने वालों के लिए भी सहज और सरल भाषा है इसलिए हिंदी की लोकप्रियता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। हिंदी भाषा का साहित्य और व्याकरण समृद्ध है जिसका विकास मध्यकाल में हुआ था। हिंदी कई बोलियों जैसे भोजपुरी, अवधी, हरियाणवी और राजस्थानी की भी मातृभाषा है। हिन्दी का व्याकरण हिन्दी भाषा का आधार है, जिसके कारण हिन्दी व्याकरण का व्यवस्थित और व्यापक अध्ययन आवश्यक हो जाता है। हिंदी  व्याकरण में, वाक्य के मूल तत्वों को पाद कहा जाता है। एक पाद एक संज्ञा या क्रिया हो सकता है, या शब्दों का एक समूह वाक्य में एक इकाई के रूप में कार्य कर सकता है। पद हिंदी व्याकरण की सबसे छोटी इकाई है जिसे छोटी इकाइयों में विभाजित नहीं किया जा सकता है। हिन्दी व्याकरण वाणी के आठ भागों को भी पहचानता है, अर्थात्, संज्ञा (संज्...

प्रपद्यवाद (नकेनवाद) (1956 ईस्वी)

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प्रपद्यवाद (नकेनवाद)  (1956 ईस्वी)  आपका हिंदी  साहित्य और लेखनकला में स्वागत..... जैसाकि आपको जानकारी है  हिंदी में अनेक वाद उदाहरण के लिए छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद,  हालावाद इसी तरह एक अन्य वाद है प्रपद्यवाद।  आज हम इसी वाद से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य पढ़ेगें प्रपद्यवाद का प्रवर्तन नलिन विलोचन शर्मा ने सन् 1956 में प्रकाशित नकेन के प्रपद्यवाद संकलन से किया है। प्रपद्यवाद को 'नकेनवाद' भी कहा जाता है क्योंकि इसमें बिहार के 3 कवि नलिन विलोचन शर्मा केसरी कुमार और नरेश के नाम के प्रथम अक्षरों को आधार मानकर बनता है। प्रपद्यवाद और प्रयोगवाद में मूल अंतर यह है कि प्रपद्यवाद प्रयोग को साध्य मानता है जबकि प्रयोगवाद प्रयोग को साधन मानता है। आचार्य नंददुलारे वाजपेई ने प्रपद्यवाद के संबंध में लिखा है नकेनवाद जिसे उसके हिमायतियों ने प्रपद्यवाद भी कहा है। वास्तव में प्रयोगशीलता का एक अतिवाद था। प्रयोगवाद के प्रवक्ताओं ने जो कुछ नया कहा था उससे संतुष्ट ना होकर उसे तार्किक सीमा तक पहुंचाने का कार्य नकेन 1, नकेन 2  नामक संग्रह की भूमिका में दिखाई पड़ा थ...

योजक, योजक की परिभाषा, योजक के भेद

आपका स्वागत है हिंदी साहित्य और लेखनकला में  आज हम योजक की परिभाषा, भेद और उदाहरण को पढ़ेंगे  १) योजक किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए। उत्तर - जो शब्द दो या दो से अधिक शब्दों, वाक्यांशों या वाक्यों को जोड़ने या मिलाने का कार्य करते हैं, उन्हें योजक कहते हैं। इन शब्दों को समुच्चय बोधक भी कहा जाता है। जैसे-  रीना और टीना साथ साथ खेलेंगी।    इस वाक्य में 'और' शब्द योजक है। २) योजक शब्द के कितने भेद हैं? उत्तर - योजक शब्दों के मुख्यत: तीन भेद हैं -  * संयोजक      *विभाजक    *विकल्पसूचक। ३) संयोजक योजक शब्द की परिभाषा उदाहरण सहित  दीजिए। उत्तर - जो योजक शब्द वाक्यांशों, शब्दों या वाक्यों को मिलाने या समानता बताने का काम करते हैं, संयोजक योजक शब्द कहलाते हैं। जैसे- और, तथा, एवं,व  आदि। उदाहरण- मोहन और सोहन भाई हैं। ४) विभाजक और विकल्पसूचक योजक शब्दों की परिभाषा उदाहरण सहित दीजिए। जो योजक शब्द भेद प्रकट करते हुए भी शब्दों, वाक्यांशों या वाक्यों को मिलाएं उन्हें विभाजक कहते हैं  जैसे- परंतु, किंतु, मगर,  ताकि, इसलिए, ...

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