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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

सतपुड़ा के जंगल (कविता)

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कविता- सतपुड़ा के जंगल कवि- भवानीप्रसाद मिश्र प्रकाशन व संकलन - गीत-फरोश १९५६ व दूसरा तार सप्तक में।  कविता का आरंभ  सतपुड़ा के घने जंगल  नींद में डूबे हुए-से,  ऊँघते अनमने जंगल।  झाड़ ऊँचे और नीचे  चुप खड़े हैं आँख भींचे; घास चुप है, काश चुप है  मूक शाल, पलाश चुप है;  बन सके तो धँसो इनमें,  धँस न पाती हवा जिनमें,  सतपुड़ा के घने जंगल  नींद में डूबे हुए-से  ऊँघते अनमने जंगल।  सड़े पत्ते, गले पत्ते,  हरे पत्ते, जले पत्ते,  वन्य पथ को ढँक रहे-से  पंक दल में पले पत्ते,  चलो इन पर चल सको तो,  दलो इनको दल सको तो,  ये घिनौने-घने जंगल,  नींद में डूबे हुए-से  ऊँघते अनमने जंगल।  अटपटी उलझी लताएँ,  डालियों को खींच खाएँ,  पैरों को पकड़ें अचानक,  प्राण को कस लें कपाएँ,  साँप-सी काली लताएँ  बला की पाली लताएँ,  लताओं के बने जंगल,  नींद में डूबे हुए-से  ऊँघते अनमने जंगल।  मकड़ियों के जाल मुँह पर, और सिर के बाल मुँह पर,  मच्छरों के द...

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