ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

अपना अपना भाग्य


कहानी - ‘अपना अपना भाग्य’

कहानीकार - जैनेन्द्र


 

               ‘अपना अपना भाग्य’ कहानी


लेखक अपने मित्र के साथ नैनीताल में संध्या के समय
बहुत देर तक निरुद्देश्य घूमने के बाद सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठे गए। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रुई के रेश से भाप के बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक-टोक घूम रहे थे। हलके-हलके प्रकाश और अंधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफ़ेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे।
पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला थ सामने अंग्रेजों का एक प्रमोद गृह था। जहाँ सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था । और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल।
ताल में किश्तिय अपने सफ़ेद पाल उडाती एक-दो अंग्रेज यात्रियों को लेकर इधर से उधर और उधर से इधर खेल रही थी। कहीं कुछ अंग्रेज एक-एक सामने प्रतिस्थापित का, अपनी सुई-सी शक्ल की डोंगियों को, मानो शर्त बांधकर सरपट दौड़ रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी डाले, सधैर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिंतन कर रहे थे। पीछे पोलोलॉन में बच्चे किलकारियाँ मारते हुए हॉकी खेल रहे थे।
शोर, मार-पीट, गाली-गलौज भी जैसे खेल का ही अंश था इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना, वे बालक अपना सारा मन, समग्र बल और समूची विधा लगाकर मानों ख़त्म कर देना चाहते थे। उन्हें आगे की चिंता न थी। बीते का ख्याल ना था। वे शुद्ध तत्काल के प्राणी थे। वे शब्द की सम्पूर्ण सच्चाई के साथ जीवित थे।
सड़क पर से नर-नारियों का अविरल प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था न छोर। यह प्रवाह कहां जा रहा था और कहां से आ रहा था, कौन बता सकता है? सब उम्र के, सब तरह के लोग उसमें थे। मानो मनुष्यता के नमूनों का बाजार सजकर सामने से इठलाता निकला जा रहा हो।
अधिकार-गर्व में ताने अंग्रेज उसमे थे और चिथड़ों से सजे घोड़ों की बाग़  थामे पहाड़ी उसमें पहाड़ी थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचलकर शून्य बना लिया है और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सिख गए हैं।
भागते, खेलते, हंसते, शरारत करते लाल-लाल अंग्रेज बच्चे थे और पीली-पीली आँखें फाड़े, पिता की उंगली पकड़कर चलते हुए अपने हिन्दुस्तानी नौनिहाल भी थे। अंग्रेज पिता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे। हंस रहे थे और खेल रहे थे उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुजुर्गों को अपने चारों तरफ लपेटे धन-संपन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे।
अंगेज रमणियाँ थीं, जो धीरे-धीरे नहीं चलती थीं, तेज चलती थी। उन्हें न चलने से थकावट आती थी, न हंसने में मौत आती थी। कसरत के नाम पर घोड़े पर भी बैठ अक्ती थीं और घोड़े के साथ ही साथ जरा जी होते ही किसी-किसी हिन्दुस्तानी पर कोड़े भी फटकार सकती थी। वे दो-दो, तीन-तीन, चार-चार की की टोलियों में निःशंक निरापद इस प्रवाह में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सडक पर चलि जारही थी।
उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मी, सड़क के बिलकुल किनारे दामन बचाती और संभालती हुई, साड़ी की कई तहों में सिमट-सिमट कर, लोक- लज्जा, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमाके आदर्श को अपने परोवेश्तनों में छिपाकर सहमी-सहमी धरती में आँख गाड़े, कदम-कदम बढ़ रही थी।
इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था अपने कालेपन को खुरच-खुरचकर बहा देने की इच्छा करनेवाला अंग्रेजीदां पुरुषोतम भी थे जो नेटिवों को देखकर मुंह फेर लेते थे अग्रेज को देखकर आँखे बिछा देते थे और दुम हिलाने लगते थे वैसे वे अकड़कर चलते थे, मानो भारतभूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला है।
घंटे के घंटे सरक गए अन्धकार गाढ़ा हो गया बादल सफ़ेद होकर जम गए मनुष्यों का वह ताँता एक-एक कर क्षीण हो गया अब इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर छतरी लगाकर निकल रहा था। हम वहीँ के वहीँ बैठे थे सर्दी-सी मालुम हुई हमारे ओवरकोट भींग गए थे पीछे फिरकर देखा यह लाल बर्फ की चादर की तरह बिल्कुल स्तब्ध और सुन्न पड़ा था।
सब सन्नाटा था। तल्लीताल की बिजली की रोशनियाँ दीप-मालिका-सी जगमगा रही थीं। वह जगमगाहट दो मिल तक फैले हुए प्रकृति के जल दर्पण पर प्रतिबिंबित हो रही थी और दर्पण का काँपता हुआ, लहरें लेता हुआ, वह जल प्रतिबिम्बों को सौगुना, हजारगुना करके, उनके प्रकाश को मानो एकत्र और पुंजीभूत करके व्याप्त कर रहा था। पहाड़ों के सिरों पर की रोशनियाँ तारों-सी जान पड़ती थी।
हमारे देखते-देखते एक घने पर्दे ने आकर इन सबको ढ़क दिया रोशनियाँ मानों मर गईं। जगमगाहट लुप्त ही गई। वे काले-काले बहुत-से पहाड़ भी न दीखने लगी। मानी यह घनीभूत प्रलय था। सबकुछ इस घनी गहरी सफ़ेदी में दब गया। एक शुभ महासागर में फैलकर संस्कृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया। ऊपर-नीचे, चारों तरफ़ वह निभेध, सफ़ेद शून्यता ही फैली हुई थी।   
ऐसा घटना कुहरा हमने कभी नहीं देखा था। वह टप-टप टपक रहा था। मार्ग अब बिल्कुल निर्जन-चुप था। वह प्रवाह न जाने किन घोसलों में जा छिपा था उस कवृहदाकार शुभ शून्य में कहीं से ग्यारह बार टन-टन हो उठा जैसे कहीं दूर कब्र में से आवाज आ रही हो हम अपने-अपने होटलों के लिए चल दिए रास्ते में दो मित्रों का होटल मिला दोनों वकील मित्र छुट्टी लेकर चले गए। हम दोनों होटल आगे बढ़े हमारा होटल आगे था।
ताल के किनारे-किनारे हम चले जा रहे थे। हमारे ओवरकोट तर हो गए थे। बारिस नहीं मालूम होती थी, पर वहां तो ऊपर-नीचे हवा से कण-कण में बारिस थी। सर्दी इतनी थी कि सोचा, कोट पर एक कम्बल और होता तो अच्छा होता।
रास्ते में ताल के बिल्कुल किनारे पर एक बेंच पड़ी थी। मैं जी में बेचैन हो रहा था। झटपट होटल पहुंचकर इन भींगे कपड़ों से छुट्टी पा, गरम बिस्तर में छिपकर सोना चाहता था, पर साथ में मित्रों की सनक कब उठेगी, कब थमेगी-इसका पता न था और वह कैसी क्या होगी-इसका भी अन्दाज नहीं था उन्होंने कहा-“ आओ, जरा यहाँ बैठों।”
हम उस चूते कुहरे में रत के ठीक एक बजे तालाब के किनारे उस भींगी बरफ-सी ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ गए।
पांच, दस, पन्द्रह मिनट हो गए मित्र के उठने का इरादा न मालुम हुआ मैंने खिसियाकर कहा,
“चलिए भी।”
“अरे जरा बैठों भी।”
हाथ पकड़कर जरा बैठने कर लिए जब इस जोर से बैठा लिया गया तो और चारा न रहा- लाचार बैठे रहना पड़ा सनक से छुटकारा आसान न था और यह जरा न था बहुत था
चुपचाप बैठे तंग हो रहा था कि मित्र अचानक बोले-
“देखों…वह क्या है?”
मैने देखा-कुहरे की सफेदी में कुछ ही हाथ दूर से एक काली-सी सूरत हमारी तरफ बढ़ रही थी मैंने कहा, “होगा कोई।”
तीन गज की दूरी से दीख पड़ा, एक लड़का सर के बड़े-बड़े बालों को खुजलाता चला आ रहा है।    नंगें पैर है, नंगा सिर, एक मैली-सी कमीज लटकाए है। पैर उसके न जाने कहां पड़ रहे हों और न जाने कहां जा रहा है- कहां जाना चाहता है उसके क़दमों में न जाने कोई अगला है न कोई पिछला है न दायां, न बायां है
पास ही चुंगी की लालटेन के छोटे-से प्रकाश वृत में देखा-कोई दस बरस का होगा गोर रंग का है पर मैल से काला पड़ गया है आँखें अच्छी बड़ी पर रुखी हैं। माथा जैसे अभी से झुरियां खा गया है। वह हमें न देख पाया वह जैसे कुछ भी नहीं देख रहा था न नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरफ फैला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाकी दुनिया वह बस, अपने विकट  वर्तमान को देख रहा था
मित्र ने आवाज दी-“ए!”
उसने जैसे जागकर देखा और पास आ गया।
“तू कहां जा रहा है?”
उसने अपनी सुनी आँखें फाड़ दिन।
“दुनिया सो गई, तू ही क्यों घूम रहा है?” बालक मौन-मूक फिर भी बोलता हुआ चेहरा लेकर खड़ा।
“कहां सोएगा?”
“यही कहीं।”
“कल कहां सोया था?”
“दुकान पर।”
“आज वहां क्यों नहीं?”
“नौकरी से हटा दिया।”
“क्या नौकती थी?”
“सब काम। एकरुपया और जूठा खाना!”
“फिर नौकरी करेगा?”
“हां।”
“बाहर चलेगा?”
“हां।”
“आज क्या खाना खाया?”
“ कुछ नहीं।”
“अब खाना मिलेगा?”
“नहीं मिलेगा!”
“यों ही सो जाएगा?”
“हां।”
“कहां।”
“यही कही।”
“इन्हीं कपड़ों में?”
बालक फिर आँखों से बोलकर मूक खड़ा रहा। आँखें मानो बोलती थी- यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न!
“माँ-बाप है?”
“हां।”
“कहां?”
“पंद्रह कोस दूर गाँव में।”
“तुन भाग आया?”
“क्यों?”
“मेरे कई छोटे भाई-बहन हैं-सो भाग आया, वहां काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था। माँ भूखी रहती थी और रोटी थी। सो भाग आया। एक साथी और था। उसी गाँव का। मुझसे बड़ा था। दोनों साथ यहां आए। वह अब नहीं है।”
“कहाँ गया?”
“मर गया।”
“मर गया।”
“मर गया?”
“मर गया?”
“हाँ, साहब ने मारा, मर गया।”
“अच्छा, हमारे साथ चल।”
वह साथ चल दिया। लौटकर हम वकील दोस्तों के होटल में पहुंचे।
“वकील साहब!” वकील लोग होटल के ऊपर के कमरे से उतर कर आए। कश्मीरी दोशाला लपेटे थे। मोज़े-चढ़े पैरों में चप्पल थी। स्वर में हलकी झुंझलाहट थी, कुछ लापरवाही थी।
“आ-हा फिर आप! कहिए।”
“आपको नौकर की जरुरत थी न? देखिए, यह लड़का है।”
“कहां से ले आए? इसे आप जानते हैं?”
जानता हूँ-वह बेईमान नहीं हो सकता।”
“अजी, ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुल छिपे रहते हैं आप भी क्या अजीब हैं। उठा लाए कहीं से- लो जी, यह नौकर लो।”
“मानिए तो, यह लड़का अच्छा निकलेगा।”
“आप भ… जी, बस ख़ूब हैं। ऐरे-गेरे को नौकर बना लिया जाए, अगले दिन वह न जाने क्या-क्या लेकर चंपत हो जाए।”
“आप मानते ही नहीं, मै क्या करूँ?”
“माने क्या ख़ाक? आप भी…जी, अच्छा मज़ाक करते हैं।… अच्छा, अब हम सोने जाते हैं।”
और वह रूपये रोज के किराए वाले में सजी मसहरी पर सोने झटपट चले गए।
वकील साहब के चले जाने पर, होटल के बाहर आकर मित्र ने जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला, पर झट कुछ निराश भाव से हाथ बाहर का मेरी ओर देखने लगे।
“क्या है?”
“इसे खाने के लिए कुछ देना चाहता था।” अंग्रेजी में मित्र ने कुछ कहा, मगर दस-दस के नोट हैं।” “नोट ही शायद मेरे पास हैं, देखूं।”
सचमुच मेरे पास पॉकिट में भी नोट ही थे। हम फिर अंग्रेजी में बोलने लगे। लड़के के दांत बीच-बीच में कटकटा उठते थे। कड़ाके की सर्दी थी।
मित्र ने पुचा, “तब?”
मैने कहा, “दस का नोट ही दे दो।” सकपकाकर मित्र मेरा मुंह देखने लगे, “आते यार! बजट बिगड़ जाएगा। हृदय में जितना दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।”
“तो जाने दो, यह दया ही इस ज़माने में बहुत है।” मैने कहा, मित्र छुप रहे। फिर लड़के ने बोला, “अब आज तो कुछ नहीं हो सकता। कम मिलना। वह होटल डी पब जानता है? वहीँ कल दस बजे मिलेगा।”
“हाँ, कुछ काम देंगे हुजुर।”
“हां, हां, दूंढ़ दूंगा।”
“तो जाऊं?”
“हां”,ठंडी सांस खींचकर मित्र ने कहा,“कहां सोएगा?”
“यही कहीं बेंच पर, पेड़ के नीचे किसी दूकान की भट्टी में।”
बालक फिर उसी प्रेत-गति से एक ओर बढ़ा और कुहरे में मिल गया। हम भी होटल की ओर बढ़े। हवा तीखी थी। हमारे कोटों को पार कर बदन में तीर-सी लगती थी।
सिकुड़ते हुए मित्र ने कहा, “भयानक शीत है। उसके पास बहुत कम कपड़े…है।”
“यह संसार है यार!” मैने स्वार्थ की फिलासफ़ी सुनाई, “चलों, पहले बिस्तर में गर्म हो लो, फिर और की चिंता करना।”
उदास होकर मित्र ने कहा, “स्वार्थ! जो कहो, लाचारी कहो,
निष्ठुरता कहो या बेहयाई!” दुसरे दिन नैनीताल- स्वर्ग के किसी काले गुलाम पशु दुलारे का वह बेटा- वह बालक, निश्चित संय हमारे होटल ‘डी पब’ नहीं आया। हम अपनी नैनीताल की सैर ख़ुशी-ख़ुशी ख़त्म कर चले को हुए। उस लड़के की आस लगाते बैठे रहने की जरुरत हमने न समझी।
मोटर में सवार होते ही यह समाचार मिली कि पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे, पेड़के नीचे, ठिठुरकर मर गया!
मरने के लिए उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले चीथड़ों की कमीज मिली। आदमियों की दुनिया ने बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था।
पर बताने वाले ने बताया कि गरीब के मुँह पर, छाती मुठ्ठी और पैरों पर बरफ की हलकी-सी चादर चिपक गई थी। मानो दुनिया की बेहयाई ढ़कने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफेद और ठण्डे कफ़न का प्रबंध कर दिया था। सब सूना और सोचा, अपना-अपना भाग्य। यह कहानी हमें दूसरों की मदद करने का पाठ सिखाती है। मनुष्य को अपनी मनुष्यता नहीं छोडनी चाहिए यही तो एक अंतर है जो हमें जानवरों से अलग बनाता है।

 

लेखक अपने मित्र के साथ नैनीताल में संध्या के समय
बहुत देर तक निरुद्देश्य घूमने के बाद सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठे गए। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रुई के रेश से भाप के बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक-टोक घूम रहे थे। हलके-हलके प्रकाश और अंधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफ़ेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे।
पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला थ सामने अंग्रेजों का एक प्रमोद गृह था। जहाँ सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था । और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल।
ताल में किश्तिय अपने सफ़ेद पाल उडाती एक-दो अंग्रेज यात्रियों को लेकर इधर से उधर और उधर से इधर खेल रही थी। कहीं कुछ अंग्रेज एक-एक सामने प्रतिस्थापित का, अपनी सुई-सी शक्ल की डोंगियों को, मानो शर्त बांधकर सरपट दौड़ रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी डाले, सधैर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिंतन कर रहे थे। पीछे पोलोलॉन में बच्चे किलकारियाँ मारते हुए हॉकी खेल रहे थे।
शोर, मार-पीट, गाली-गलौज भी जैसे खेल का ही अंश था इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना, वे बालक अपना सारा मन, समग्र बल और समूची विधा लगाकर मानों ख़त्म कर देना चाहते थे। उन्हें आगे की चिंता न थी। बीते का ख्याल ना था। वे शुद्ध तत्काल के प्राणी थे। वे शब्द की सम्पूर्ण सच्चाई के साथ जीवित थे।
सड़क पर से नर-नारियों का अविरल प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था न छोर। यह प्रवाह कहां जा रहा था और कहां से आ रहा था, कौन बता सकता है? सब उम्र के, सब तरह के लोग उसमें थे। मानो मनुष्यता के नमूनों का बाजार सजकर सामने से इठलाता निकला जा रहा हो।
अधिकार-गर्व में ताने अंग्रेज उसमे थे और चिथड़ों से सजे घोड़ों की बाग़  थामे पहाड़ी उसमें पहाड़ी थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचलकर शून्य बना लिया है और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सिख गए हैं।
भागते, खेलते, हंसते, शरारत करते लाल-लाल अंग्रेज बच्चे थे और पीली-पीली आँखें फाड़े, पिता की उंगली पकड़कर चलते हुए अपने हिन्दुस्तानी नौनिहाल भी थे। अंग्रेज पिता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे। हंस रहे थे और खेल रहे थे उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुजुर्गों को अपने चारों तरफ लपेटे धन-संपन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे।
अंगेज रमणियाँ थीं, जो धीरे-धीरे नहीं चलती थीं, तेज चलती थी। उन्हें न चलने से थकावट आती थी, न हंसने में मौत आती थी। कसरत के नाम पर घोड़े पर भी बैठ अक्ती थीं और घोड़े के साथ ही साथ जरा जी होते ही किसी-किसी हिन्दुस्तानी पर कोड़े भी फटकार सकती थी। वे दो-दो, तीन-तीन, चार-चार की की टोलियों में निःशंक निरापद इस प्रवाह में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सडक पर चलि जारही थी।
उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मी, सड़क के बिलकुल किनारे दामन बचाती और संभालती हुई, साड़ी की कई तहों में सिमट-सिमट कर, लोक- लज्जा, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमाके आदर्श को अपने परोवेश्तनों में छिपाकर सहमी-सहमी धरती में आँख गाड़े, कदम-कदम बढ़ रही थी।
इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था अपने कालेपन को खुरच-खुरचकर बहा देने की इच्छा करनेवाला अंग्रेजीदां पुरुषोतम भी थे जो नेटिवों को देखकर मुंह फेर लेते थे अग्रेज को देखकर आँखे बिछा देते थे और दुम हिलाने लगते थे वैसे वे अकड़कर चलते थे, मानो भारतभूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला है।
घंटे के घंटे सरक गए अन्धकार गाढ़ा हो गया बादल सफ़ेद होकर जम गए मनुष्यों का वह ताँता एक-एक कर क्षीण हो गया अब इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर छतरी लगाकर निकल रहा था। हम वहीँ के वहीँ बैठे थे सर्दी-सी मालुम हुई हमारे ओवरकोट भींग गए थे पीछे फिरकर देखा यह लाल बर्फ की चादर की तरह बिल्कुल स्तब्ध और सुन्न पड़ा था।
सब सन्नाटा था। तल्लीताल की बिजली की रोशनियाँ दीप-मालिका-सी जगमगा रही थीं। वह जगमगाहट दो मिल तक फैले हुए प्रकृति के जल दर्पण पर प्रतिबिंबित हो रही थी और दर्पण का काँपता हुआ, लहरें लेता हुआ, वह जल प्रतिबिम्बों को सौगुना, हजारगुना करके, उनके प्रकाश को मानो एकत्र और पुंजीभूत करके व्याप्त कर रहा था। पहाड़ों के सिरों पर की रोशनियाँ तारों-सी जान पड़ती थी।
हमारे देखते-देखते एक घने पर्दे ने आकर इन सबको ढ़क दिया रोशनियाँ मानों मर गईं। जगमगाहट लुप्त ही गई। वे काले-काले बहुत-से पहाड़ भी न दीखने लगी। मानी यह घनीभूत प्रलय था। सबकुछ इस घनी गहरी सफ़ेदी में दब गया। एक शुभ महासागर में फैलकर संस्कृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया। ऊपर-नीचे, चारों तरफ़ वह निभेध, सफ़ेद शून्यता ही फैली हुई थी।   
ऐसा घटना कुहरा हमने कभी नहीं देखा था। वह टप-टप टपक रहा था। मार्ग अब बिल्कुल निर्जन-चुप था। वह प्रवाह न जाने किन घोसलों में जा छिपा था उस कवृहदाकार शुभ शून्य में कहीं से ग्यारह बार टन-टन हो उठा जैसे कहीं दूर कब्र में से आवाज आ रही हो हम अपने-अपने होटलों के लिए चल दिए रास्ते में दो मित्रों का होटल मिला दोनों वकील मित्र छुट्टी लेकर चले गए। हम दोनों होटल आगे बढ़े हमारा होटल आगे था।
ताल के किनारे-किनारे हम चले जा रहे थे। हमारे ओवरकोट तर हो गए थे। बारिस नहीं मालूम होती थी, पर वहां तो ऊपर-नीचे हवा से कण-कण में बारिस थी। सर्दी इतनी थी कि सोचा, कोट पर एक कम्बल और होता तो अच्छा होता।
रास्ते में ताल के बिल्कुल किनारे पर एक बेंच पड़ी थी। मैं जी में बेचैन हो रहा था। झटपट होटल पहुंचकर इन भींगे कपड़ों से छुट्टी पा, गरम बिस्तर में छिपकर सोना चाहता था, पर साथ में मित्रों की सनक कब उठेगी, कब थमेगी-इसका पता न था और वह कैसी क्या होगी-इसका भी अन्दाज नहीं था उन्होंने कहा-“ आओ, जरा यहाँ बैठों।”
हम उस चूते कुहरे में रत के ठीक एक बजे तालाब के किनारे उस भींगी बरफ-सी ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ गए।
पांच, दस, पन्द्रह मिनट हो गए मित्र के उठने का इरादा न मालुम हुआ मैंने खिसियाकर कहा,
“चलिए भी।”
“अरे जरा बैठों भी।”
हाथ पकड़कर जरा बैठने कर लिए जब इस जोर से बैठा लिया गया तो और चारा न रहा- लाचार बैठे रहना पड़ा सनक से छुटकारा आसान न था और यह जरा न था बहुत था
चुपचाप बैठे तंग हो रहा था कि मित्र अचानक बोले-
“देखों…वह क्या है?”
मैने देखा-कुहरे की सफेदी में कुछ ही हाथ दूर से एक काली-सी सूरत हमारी तरफ बढ़ रही थी मैंने कहा, “होगा कोई।”
तीन गज की दूरी से दीख पड़ा, एक लड़का सर के बड़े-बड़े बालों को खुजलाता चला आ रहा है।    नंगें पैर है, नंगा सिर, एक मैली-सी कमीज लटकाए है। पैर उसके न जाने कहां पड़ रहे हों और न जाने कहां जा रहा है- कहां जाना चाहता है उसके क़दमों में न जाने कोई अगला है न कोई पिछला है न दायां, न बायां है
पास ही चुंगी की लालटेन के छोटे-से प्रकाश वृत में देखा-कोई दस बरस का होगा गोर रंग का है पर मैल से काला पड़ गया है आँखें अच्छी बड़ी पर रुखी हैं। माथा जैसे अभी से झुरियां खा गया है। वह हमें न देख पाया वह जैसे कुछ भी नहीं देख रहा था न नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरफ फैला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाकी दुनिया वह बस, अपने विकट  वर्तमान को देख रहा था
मित्र ने आवाज दी-“ए!”
उसने जैसे जागकर देखा और पास आ गया।
“तू कहां जा रहा है?”
उसने अपनी सुनी आँखें फाड़ दिन।
“दुनिया सो गई, तू ही क्यों घूम रहा है?” बालक मौन-मूक फिर भी बोलता हुआ चेहरा लेकर खड़ा।
“कहां सोएगा?”
“यही कहीं।”
“कल कहां सोया था?”
“दुकान पर।”
“आज वहां क्यों नहीं?”
“नौकरी से हटा दिया।”
“क्या नौकती थी?”
“सब काम। एकरुपया और जूठा खाना!”
“फिर नौकरी करेगा?”
“हां।”
“बाहर चलेगा?”
“हां।”
“आज क्या खाना खाया?”
“ कुछ नहीं।”
“अब खाना मिलेगा?”
“नहीं मिलेगा!”
“यों ही सो जाएगा?”
“हां।”
“कहां।”
“यही कही।”
“इन्हीं कपड़ों में?”
बालक फिर आँखों से बोलकर मूक खड़ा रहा। आँखें मानो बोलती थी- यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न!
“माँ-बाप है?”
“हां।”
“कहां?”
“पंद्रह कोस दूर गाँव में।”
“तुन भाग आया?”
“क्यों?”
“मेरे कई छोटे भाई-बहन हैं-सो भाग आया, वहां काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था। माँ भूखी रहती थी और रोटी थी। सो भाग आया। एक साथी और था। उसी गाँव का। मुझसे बड़ा था। दोनों साथ यहां आए। वह अब नहीं है।”
“कहाँ गया?”
“मर गया।”
“मर गया।”
“मर गया?”
“मर गया?”
“हाँ, साहब ने मारा, मर गया।”
“अच्छा, हमारे साथ चल।”
वह साथ चल दिया। लौटकर हम वकील दोस्तों के होटल में पहुंचे।
“वकील साहब!” वकील लोग होटल के ऊपर के कमरे से उतर कर आए। कश्मीरी दोशाला लपेटे थे। मोज़े-चढ़े पैरों में चप्पल थी। स्वर में हलकी झुंझलाहट थी, कुछ लापरवाही थी।
“आ-हा फिर आप! कहिए।”
“आपको नौकर की जरुरत थी न? देखिए, यह लड़का है।”
“कहां से ले आए? इसे आप जानते हैं?”
जानता हूँ-वह बेईमान नहीं हो सकता।”
“अजी, ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुल छिपे रहते हैं आप भी क्या अजीब हैं। उठा लाए कहीं से- लो जी, यह नौकर लो।”
“मानिए तो, यह लड़का अच्छा निकलेगा।”
“आप भ… जी, बस ख़ूब हैं। ऐरे-गेरे को नौकर बना लिया जाए, अगले दिन वह न जाने क्या-क्या लेकर चंपत हो जाए।”
“आप मानते ही नहीं, मै क्या करूँ?”
“माने क्या ख़ाक? आप भी…जी, अच्छा मज़ाक करते हैं।… अच्छा, अब हम सोने जाते हैं।”
और वह रूपये रोज के किराए वाले में सजी मसहरी पर सोने झटपट चले गए।
वकील साहब के चले जाने पर, होटल के बाहर आकर मित्र ने जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला, पर झट कुछ निराश भाव से हाथ बाहर का मेरी ओर देखने लगे।
“क्या है?”
“इसे खाने के लिए कुछ देना चाहता था।” अंग्रेजी में मित्र ने कुछ कहा, मगर दस-दस के नोट हैं।” “नोट ही शायद मेरे पास हैं, देखूं।”
सचमुच मेरे पास पॉकिट में भी नोट ही थे। हम फिर अंग्रेजी में बोलने लगे। लड़के के दांत बीच-बीच में कटकटा उठते थे। कड़ाके की सर्दी थी।
मित्र ने पुचा, “तब?”
मैने कहा, “दस का नोट ही दे दो।” सकपकाकर मित्र मेरा मुंह देखने लगे, “आते यार! बजट बिगड़ जाएगा। हृदय में जितना दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।”
“तो जाने दो, यह दया ही इस ज़माने में बहुत है।” मैने कहा, मित्र छुप रहे। फिर लड़के ने बोला, “अब आज तो कुछ नहीं हो सकता। कम मिलना। वह होटल डी पब जानता है? वहीँ कल दस बजे मिलेगा।”
“हाँ, कुछ काम देंगे हुजुर।”
“हां, हां, दूंढ़ दूंगा।”
“तो जाऊं?”
“हां”,ठंडी सांस खींचकर मित्र ने कहा,“कहां सोएगा?”
“यही कहीं बेंच पर, पेड़ के नीचे किसी दूकान की भट्टी में।”
बालक फिर उसी प्रेत-गति से एक ओर बढ़ा और कुहरे में मिल गया। हम भी होटल की ओर बढ़े। हवा तीखी थी। हमारे कोटों को पार कर बदन में तीर-सी लगती थी।
सिकुड़ते हुए मित्र ने कहा, “भयानक शीत है। उसके पास बहुत कम कपड़े…है।”
“यह संसार है यार!” मैने स्वार्थ की फिलासफ़ी सुनाई, “चलों, पहले बिस्तर में गर्म हो लो, फिर और की चिंता करना।”
उदास होकर मित्र ने कहा, “स्वार्थ! जो कहो, लाचारी कहो,
निष्ठुरता कहो या बेहयाई!” दुसरे दिन नैनीताल- स्वर्ग के किसी काले गुलाम पशु दुलारे का वह बेटा- वह बालक, निश्चित संय हमारे होटल ‘डी पब’ नहीं आया। हम अपनी नैनीताल की सैर ख़ुशी-ख़ुशी ख़त्म कर चले को हुए। उस लड़के की आस लगाते बैठे रहने की जरुरत हमने न समझी।
मोटर में सवार होते ही यह समाचार मिली कि पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे, पेड़के नीचे, ठिठुरकर मर गया!
मरने के लिए उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले चीथड़ों की कमीज मिली। आदमियों की दुनिया ने बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था।
पर बताने वाले ने बताया कि गरीब के मुँह पर, छाती मुठ्ठी और पैरों पर बरफ की हलकी-सी चादर चिपक गई थी। मानो दुनिया की बेहयाई ढ़कने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफेद और ठण्डे कफ़न का प्रबंध कर दिया था। सब सूना और सोचा, अपना-अपना भाग्य। यह कहानी हमें दूसरों की मदद करने का पाठ सिखाती है। मनुष्य को अपनी मनुष्यता नहीं छोडनी चाहिए यही तो एक अंतर है जो हमें जानवरों से अलग बनाता है।

धन्यवाद 🙏

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