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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

आत्मकथ्य (जयशंकर प्रसाद)

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आत्मकथ्य - मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह, मुरझाकर गिर रहीं पत्तियां देखो कितनी आज घनी। इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्‍य जीवन-इतिहास यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंग्य मलिन उपहास तब भी कहते हो-कह डालूं दुर्बलता अपनी बीती तुम सुनकर सुख पाओगे,  देखोगे-यह गागर रीती।  किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले- अपने को समझो,  मेरा रस ले अपनी भरने वाले। यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं  भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं। उज्जवल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की अरे खिल-खिलाकर हँसने वाली उन बातों की।  मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में  उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?  छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?  क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ? सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा? अभी समय भ...

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