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ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

अपना अपना भाग्य

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कहानी - ‘अपना अपना भाग्य’ कहानीकार - जैनेन्द्र                  ‘ अपना अपना भाग्य’ कहानी लेखक अपने मित्र के साथ नैनीताल में संध्या के समय बहुत देर तक निरुद्देश्य घूमने के बाद सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठे गए। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रुई के रेश से भाप के बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक-टोक घूम रहे थे। हलके-हलके प्रकाश और अंधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफ़ेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे। पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला थ सामने अंग्रेजों का एक प्रमोद गृह था। जहाँ सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था । और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल। ताल में किश्तिय अपने सफ़ेद पाल उडाती एक-दो अंग्रेज यात्रियों को लेकर इधर से उधर और उधर से इधर खेल रही थी। कहीं कुछ अंग्रेज एक-एक सामने प्रतिस्थापित का, अपनी सुई-सी शक्ल की डोंगियों को, मानो शर्त बांधकर सरपट दौड़ रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी डाले, सधैर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिंतन कर रहे थे। पीछे पोलोलॉन में बच्चे...

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