संदेश

मई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ईश्वर की मूर्ति

ईश्‍वर की मूर्ति प्रतापनारायण मिश्र वास्‍तव में ईश्‍वर की मूर्ति प्रेम है, पर वह अनिर्वचनीय, मूकास्‍वादनवत्, परमानंदमय होने के कारण लिखने वा कहने में नहीं आ सकता, केवल अनुभव का विषय है। अत: उसके वर्णन का अधिकार हमको क्या किसी को भी नहीं है। कह सकते हैं तो इतना ही कह सकते हैं कि हृदय मंदिर को शुद्ध करके उसकी स्‍थापना के योग्‍य बनाइए और प्रेम दृष्टि से दर्शन कीजिए तो आप ही विदित हो जाएगा कि वह कैसी सुंदर और मनोहर मूर्ति है। पर यत: यह कार्य सहज एवं शीघ्र प्राप्‍य नहीं है। इससे हमारे पूर्व पुरुषों ने ध्‍यान धारण इत्‍यादि साधन नियत कर रक्‍खे हैं जिनका अभ्‍यास करते रहने से उसके दर्शन में सहारा मिलता है। किंतु है यह भी बड़े ही भारी मस्तिष्‍कमानों का साध्‍य। साधारण लोगों से इसका होना भी कठिन है। विशेषत: जिन मतवादियों का मन भगवान् के स्‍मरण में अभ्‍यस्‍त नहीं है, वे जब आँखें मूँद के बैठते हैं तब अंधकार के अतिरिक्‍त कुछ नहीं देख सकते और उस समय यदि घर गृहस्‍थी आदि का ध्‍यान न भी करैं तौ भी अपनी श्रेष्‍ठता और अन्‍य प्रथावलंबियों की तुच्‍छता का विचार करते होंगे अथवा अपनी रक्षा वा मनोरथ सिद्धि इत्‍य...

शासन की बंदूक (कविता)

चित्र
कविता - शासन की बंदूक    कवि- नागार्जुन रचनाकाल-१९६६ प्रकाशन व संकलन- युगधारा १९५३ में हुआ था  कविता का आरंभ  खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक  नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक  उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक  जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक  बढ़ी बधिरता दगुनी, बने विनोबा मूक धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक  सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक  जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक  जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक  बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक निष्कर्ष - कविता में जनता की शाक्ति का दर्शन कराया गया है । शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य किया गया है।  कविता के माध्यम से शासन को चुनौती दी है।  सत्य और अहिंसा अब नहीं रही है।  हिटलर और निरंकुशतावादी शासन दिखाया गया है।  जलशक्ति को जागृत करने का प्रयास किया है कवि ने।  शासन की बंदूक का विराट स्वरूप।  धन्यवाद 🙏

खुरदरे पैर(कविता)

चित्र
कविता - खुरदरे पैर  कवि - नागार्जुन प्रकाशन - १९६१ में  कविता का आरंभ  खुब गए  दूधिया निगाहों में फटी बिवाइयोंवाले खुरदरे पैर धँस गए कुसुम-कोमल मन में गुट्ठल घट्ठोंवाले कुलिश-कठोर पैर दे रहे थे गति रबड़-विहीन ठूँठ पैडलों को चला रहे थे एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को नाप रहे थे धरती का अनहद फासला घण्टों के हिसाब से ढोये जा रहे थे ! देर तक टकराए उस दिन इन आँखों से वे पैर भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयाँ खुब गईं दूधिया निगाहों में धँस गईं कुसुम-कोमल मन में निष्कर्ष  कविता में शोषित और पीड़ित जनता के प्रति सहानुभूति है।  कविता में मज़दूर वर्ग के पैरों का मार्मिक चित्रण किया है।  रिक्शेवाले पर यह कविता आधारित है।  किसान और मजदूर वर्ग के पैर के घाव का वर्णन किया है।  धन्यवाद  🙏

मोचीराम(कविता)

चित्र
कविता - मोचीराम  कवि - धूमिल कविता का आरंभ  राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे क्षण-भर टटोला और फिर जैसे पतियाये हुये स्वर में वह हँसते हुये बोला- बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में न कोई छोटा है न कोई बड़ा है मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है जो मेरे सामने मरम्मत के लिये खड़ा है। और असल बात तो यह है कि वह चाहे जो है जैसा है,जहाँ कहीं है आजकल कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नहीं है फिर भी मुझे ख्याल है रहता है कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच कहीं न कहीं एक आदमी है जिस पर टाँके पड़ते हैं, जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहता है। यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’ बतलाते हैं सबकी अपनी-अपनी शक्ल है अपनी-अपनी शैली है मसलन एक जूता है: जूता क्या है-चकतियों की थैली है इसे एक आदमी पहनता है जिसे चेचक ने चुग लिया है उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर कोई पतंग फँसी है और खड़खड़ा रही है। ‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’ मैं कहना चाहता हूँ मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है मैं महसूस करता हूँ-भीतर से एक आवाज...

अकाल और उसके बाद (कविता)

चित्र
कविता - अकाल और उसके बाद  कवि - नागार्जुन प्रकाशन-१९५२ कविता का आरंभ  कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास  कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास  कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त  कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त। दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद  धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद  चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद  कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद। निष्कर्ष - यह एक समाजवादी कविता है । अकाल की मार्मिक स्थिति का वर्णन।  अकाल समाप्ति की खुशी को दर्शाया गया है।  भूख की स्थिति।  समस्त जीवों का उदाहरण दिया गया है।  भोजन की उम्मीद में प्राणी धन्यवाद 🙏

हरि घास पर क्षणभर(कविता)

चित्र
कविता- हरि घास पर क्षणभर कवि- अज्ञेय रची गई -  14 अक्टूबर 1949 को प्रकाशित हुई - 1949 को  कविता का आरंभ  आओ बैठें इसी ढाल की हरी घास पर। माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है, और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह सदा बिछी है-हरी, न्यौती, कोई आ कर रौंदे। आओ, बैठो तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस, नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की। चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे बोलो, स्वगत गुनगुनाओ, चाहे चुप रह जाओ- हो प्रकृतस्थ : तनो मत कटी-छँटी उस बाड़ सरीखी, नमो, खुल खिलो, सहज मिलो अन्त:स्मित, अन्त:संयत हरी घास-सी। क्षण-भर भुला सकें हम नगरी की बेचैन बुदकती गड्ड-मड्ड अकुलाहट- और न मानें उसे पलायन; क्षण-भर देख सकें आकाश, धरा, दूर्वा, मेघाली, पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे, फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया- और न सहसा चोर कह उठे मन में- प्रकृतिवाद है स्खलन क्योंकि युग जनवादी है। क्षण-भर हम न रहें रह कर भी : सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में किसी दूर सागर की लोल लहर की जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं- जैसे सीपी सदा सुना करती है।...

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! (कविता)

चित्र
कविता- बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! कवि - निराला  प्रकाशन - अर्चना कविता संग्रह  1950 में हुुआ कविता का आरंभ  बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! पूछेगा सारा गाँव, बंधु! यह घाट वही जिस पर हँसकर, वह कभी नहाती थी धँसकर, आँखें रह जाती थीं फँसकर, कँपते थे दोनों पाँव बंधु! वह हँसी बहुत कुछ कहती थी, फिर भी अपने में रहती थी, सबकी सुनती थी, सहती थी, देती थी सबके दाँव, बंधु निष्कर्ष -  इस कविता में एक प्रेम कहानी का वर्णन है।  लोक जीवन का उदाहरण है।  स्त्री जीवन की त्रासदी का चित्रण है।  स्त्री की सामाजिक पहचान का वर्णन है।  स्त्री अस्तित्व का बोध है।   पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध है।  धन्यवाद 🙏

भूल गलती (कविता)

चित्र
कविता - भूल-गलती  कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध  प्रकाशन-  चाँद का मुँह टेढा है (1964) में  कविता का आरंभ  भूल-गलती आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर तख्त पर दिल के; चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक, आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी, खड़ी हैं सिर झुकाए           सब कतारें                    बेजुबाँ बेबस सलाम में, अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे                            दरबारे आम में। सामने बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा चेहरा कि जिस पर काँप दिल की भाप उठती है... पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद समूचे जिस्म पर लत्तर झलकते लाल लंबे दाग बहते खून के। वह कैद कर लाया गया ईमान... सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता, बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकता खामोश !!                         सब खामोश मनसबदार, शाइर और सूफी, अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी आलिमो फाजिल सिपहसालार, ...

गीत फरोश(कविता)

चित्र
कविता - गीत-फरोश   कवि - भवानीप्रसाद मिश्र  प्रकाशन-  1956 में हुआ और दूसरे तार सप्तक में भी प्रकाशित हुई।  कविता का आरंभ  जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ, मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ, मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ ! जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा, बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा, कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने, कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने, यह गीत, सख्त सरदर्द भुलाएगा, यह गीत पिया को पास बुलाएगा ! जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको; पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको, जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान, जी, आप न हों सुन कर ज्यादा हैरान - मैं सोच-समझकर आखिर अपने गीत बेचता हूँ, जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ, मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ, मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ ! यह गीत सुबह का है, गाकर देखें, यह गीत गजब का है, ढाकर देखे, यह गीत जरा सूने में लिक्खा था, यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था, यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है, यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है ! यह गीत भूख और प्यास भगाता है, जी, यह मसान में भूख जगाता है, यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर, यह ...

यह दीप अकेला (कविता)

चित्र
कविता- यह दीप अकेला  कवि - अज्ञेय प्रकाशन- नई दिल्ली  'आल्पस कहवा घर'  (18 अक्टूबर, यह 1953) बावरा अहेरी में हुआ कविता का आरंभ   यह दीप अकेला स्नेह भरा  है गर्व भरा मदमाता पर  इसको भी पंक्ति को दे दो  यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा  पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?  यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा  यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :  यह दीप अकेला स्नेह भरा  है गर्व भरा मदमाता पर  इस को भी पंक्ति दे दो  यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय  यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय  यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय  यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः  इस को भी शक्ति को दे दो  यह दीप अकेला स्नेह भरा  है गर्व भरा मदमाता पर  इस को भी पंक्ति दे दो  यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,  वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,  कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में  यह सदा-द्रवित...

अकाल दर्शन (कविता)

चित्र
कविता - अकाल दर्शन कवि- धूमिल प्रकाशन- सड़क से संसद तक में 1972 में हुआ है  कविता का आरंभ  भूख कौन उपजाता है : वह इरादा जो तरह देता है या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है? उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया। उसने गलियों और सड़कों और घरों में बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया और हँसने लगा। मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा – 'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं' इससे वे भी सहमत हैं जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए रसद देते हैं। उनका कहना है कि बच्चे हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं। लेकिन यही वे भूलते हैं दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं हमारे अपराध फूलते हैं मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर 'जनता के हित में' स्थानांतरित हो गया। मैंने खुद को समझाया – यार! उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह क्यों झिझकते हो? क्या तुम्हें किसी का सामना करना है? तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की सिर्फ़ पीठ देख सकते हो। और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने ...

रोटी और संसद(कविता), धूमिल(कवि)

चित्र
रोटी और संसद(कविता) धूमिल(कवि) प्रकाशन - 1972 में सड़क से संसद तक कविता का आरंभ  एक आदमी  रोटी बेलता है  एक आदमी रोटी खाता है  एक तीसरा आदमी भी है  जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है  वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है  मैं पूछता हूँ—  ‘यह तीसरा आदमी कौन है?’  मेरे देश की संसद मौन है। निष्कर्ष - इस कविता में कवि ने किसान वर्ग की मजबूरी का चित्रण किया है राजनीति पर करारा व्यंग्य  किया है  मूलभूत जरूरतों के साथ खिलवाड़ करने वाले नेताओं पर प्रहार किया है भ्रष्ट नेताओं की और संकेत किया है  संसद में बैठे हुए सदस्यों को उद्देशित करके कहा है  रोटी को तीन वर्ग में विभाजित किया है  रोटी की दशा का चित्रण किया है।  धन्यवाद 🙏

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र(कविता)

चित्र
कविता - द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! कवि - सुमित्रानंदन पत्र रचनाकाल - फरवरी 1934 है प्रकाशन - युगांत (1935) और  पल्लवनि (1940) काव्य संग्रह में हुआ है कविता   द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!  हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!  हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,  तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!  निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग! जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन, च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम झर-झर अनन्त में हो विलीन! कंकाल-जाल जग में फैले  फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली!  प्राणों की मर्मर से मुखरित  जीव की मांसल हरियाली!  मंजरित विश्व में यौवन के जग कर जग का पिक, मतवाली निज अमर प्रणय-स्वर मदिरा से भर दे फिर नव-युग की प्याली! निष्कर्ष -  यह प्रगतिवादी कविता है , नवयुग निर्माण की भावना है कविता में , पुरानी मान्यताओं और विचारों को नष्ट करने  बात कही है कविता में, पुरानी  मान्यताएँ  जड़वत और निर्जीव हो गई है,  परिवर्तन ही कवि का उद्देश्य है,  नय युग के साथ चलने की बात कही कवि ने इस कविता में । धन्यवाद 🙏

कविता - फिर विकल है प्राण मेरे कवयित्री - महादेवी वर्मा

चित्र
कविता - फिर विकल है प्राण मेरे  कवयित्री - महादेवी वर्मा  फिर विकल हैं प्राण मेरे!  तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है!  जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है?  क्यों मुझे प्राचीन बनकर  आज मेरे श्वास घेरे?  सिंधु की निःसीमता पर लघु लहर का लास कैसा?  दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा?  दे रही मेरी चिरंतनता  क्षणों के साथ फेरे!  बिंबग्राहकता कणों को शलभ को चिर साधना दी,  पुलक से नभ भर धरा को कल्पनामय वेदना दी;  मत कहो हे विश्व 'झूठे  हैं अतुल वरदान तेरे!'  नभ डुबा पाया न अपनी बाढ़ में भी क्षुद्र तारे,  ढूँढ़ने करुणा मृदुल घन चीर कर तूफान हारे;  अंत के तम में बुझे क्यों  आदि के अरमान मेरे!  धन्यवाद 🙏

यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो (कविता)

चित्र
कविता- यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो (कविता)  कवयित्री - महादेवी वर्मा  यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो  रजत शंख घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर, गये आरती वेला को शत-शत लय से भर, जब था कल कंठो का मेला, विहंसे उपल तिमिर था खेला, अब मन्दिर में इष्ट अकेला, इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो! चरणों से चिन्हित अलिन्द की भूमि सुनहली, प्रणत शिरों के अंक लिये चन्दन की दहली, झर सुमन बिखरे अक्षत सित, धूप-अर्घ्य नैवेदय अपरिमित  तम में सब होंगे अन्तर्हित, सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो! पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया, प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया, सांसों की समाधि सा जीवन, मसि-सागर का पंथ गया बन रुका मुखर कण-कण स्पंदन, इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो! झंझा है दिग्भ्रान्त रात की मूर्छा गहरी आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी, जब तक लौटे दिन की हलचल, तब तक यह जागेगा प्रतिपल, रेखाओं में भर आभा-जल दूत सांझ का इसे प्रभाती तक चलने दो! धन्यवाद 🙏

मैं नीर भरी दुख की बदली (कविता)

चित्र
कविता- मैं नीर भरी दुख की बदली कवयित्री- महादेवी वर्मा  मैं नीर भरी दुख की बदली! स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा क्रन्दन में आहत विश्व हँसा नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झारिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा श्वासों से स्वप्न-पराग झरा नभ के नव रंग बुनते दुकूल छाया में मलय-बयार पली। मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल चिन्ता का भार बनी अविरल रज-कण पर जल-कण हो बरसी, नव जीवन-अंकुर बन निकली! पथ को न मलिन करता आना पथ-चिह्न न दे जाता जाना; सुधि मेरे आगन की जग में सुख की सिहरन हो अन्त खिली! विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना, इतिहास यही- उमड़ी कल थी, मिट आज चली! धन्यवाद 🙏

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ (कविता)

चित्र
कविता - बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ !  कवयित्री - महादेवी वर्मा  काव्य संग्रह - नीरजा से                     कविता का आरंभ  बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ ! नींद थी मेरी अचल निस्पंद कण कण में, प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में, प्रलय में मेरा पता पदचिह्न जीवन में, शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में, कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ ! नयन में जिसके जलद वह तुषित चातक हूँ, शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ, फूल को उर में छिपाए विकल बुलबुल हूँ, एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ; दूर तुमसे हूँ अखंड सुहागिनी भी हूँ ! आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के, शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के, पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में, हूँ वही प्रतिबिंब जो आधार के उर में; नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ ! नाश भी हूँ मैं अनंत विकास का क्रम भी, त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी तार भी आघात भी झंकार की गति भी पात्र भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी हूँ; अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ ! ...

जुही की कली(कविता)

चित्र
कविता-जुही की कली  कवि- निराला  विजन-वन-वल्लरी पर  सोती थी सुहागभरी-स्नेह-स्वप्न-मग्न- अमल-कोमल-तनु-तरुणी-जूही की कली , दृग बन्द किये, शिथिल-पत्रांक में।  वासन्ती निशा थी; विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़  किसी दूर देश में था पवन  जिसे कहते हैं मलयानिल।  आई याद बिछुड़ने से मिलन की वह मधुर बात , आई याद चाँदनी  की धुली  हुई आधी रात,  आई याद कान्ता की कम्पित कमनीय गात, फिर क्या? पवन  उपवन-सर-सरित गहन-गिरि-कानन  कुञ्ज-लता-पुंजों को पारकर  पहुँचा जहां उसने की केलि  कली-खिली-साथ।  सोती थी, जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह? नायक ने चूमे कपोल, बोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।  इस पर भी जागी नहीं, चूक-क्षमा मांगी नहीं, निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूंदे रही- किम्वा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये  कौन कहे? निर्दय उस नायक ने  निपट निठुराई की, कि झोंकों की झड़ियों से  सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली, मसल दिये गोरे कपोल गोल, चौंक पड़ी युवति- चकित चितवन निज चारों ओर पेर, हेर प्यारे की सेज पास, नम्रमुख हं...

परिंदे कहानी, कहानीकार निर्मल वर्मा

चित्र
कहानी- परिंदे कहानीकार- निर्मल वर्मा प्रकाशन- १९५८ में परिंदे कहानी संग्रह में प्रकाशित हुई पात्र- लतिका, गिरिश नेगी (लतिका का प्रेमी), हयुवर्ट(सहकमी), डाॅ० मुकर्जी (वर्मा का रहने वाला), मिस बुड, सुधा (छात्रा), करीमुद्दीन (चपरासी), फादर एल्मंड विषय- प्रेम का त्रिकोण परंपरारूपी स्त्री की सोच नारी मनस्थिति का चित्रण स्त्री के पर्दे खोलती है जीवन की आंतरिक लय, भावबोध को खोलती है  कहानी का आरंभ  अँधेरे गलियारे में चलते हुए लतिका ठिठक गयी। दीवार का सहारा लेकर उसने लैम्प की बत्ती बढ़ा दी। सीढ़ियों पर उसकी छाया एक बैडौल कटी-फटी आकृति खींचने लगी। सात नम्बर कमरे में लड़कियों की बातचीत और हँसी-ठहाकों का स्वर अभी तक आ रहा था। लतिका ने दरवाजा खटखटाया। शोर अचानक बंद हो गया। “कौन है?" लतिका चुप खड़ी रही। कमरे में कुछ देर तक घुसर-पुसर होती रही, फिर दरवाजे की चिटखनी के खुलने का स्वर आया। लतिका कमरे की देहरी से कुछ आगे बढ़ी, लैम्प की झपकती लौ में लड़कियों के चेहरे सिनेमा के परदे पर ठहरे हुए क्लोजअप की भाँति उभरने लगे। “कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है?" लतिका के स्वर में हल्की-सी झिड़की का आभा...

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

शिवशंभू के चिट्ठे (निबंध), बालमुकुंद गुप्त

ईदगाह (प्रेमचंद)

मेरे राम का मुकुट भीग रहा है

निराशावादी (कविता)

हिंदी रचना पर आधारित फिल्में